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________________ 213 वरंगचरिउ हैं। इसके दो भेद हैं-द्रव्य अहिंसा और भाव अहिंसा। द्रव्य अहिंसा-जीव-मात्र को न मारना और न सताना द्रव्य अहिंसा है एवं जीव मात्र के प्रति मारने और बताने का भाव भी न रखना भाव अहिंसा है। अट्ठमि (अष्टमी) __ जैन धर्म में अष्टमी एक पर्व के रूप में माना जाता है, यह शाश्वत पर्व है। अणसणु (अनशन) 1/21 ___ यह बाह्य तप का प्रथम भेद है। इसका अपर नाम उपवास कहा जाता है। शरीर से उपेक्षा हो जाने के कारण अथवा अपनी चेतन वृत्तियों को भोजन आदि के बन्धनों से मुक्त करने के लिए अथवा क्षुधा आदि में भी साम्यरस से च्युत न होने रूप आत्मिक बल की वृद्धि के लिए किया गया चारों प्रकार के आहारों का त्याग ही अनशन तप है। आयरिय (आचार्य) (1/1) साधुओं को दीक्षा-शिक्षा दायक, उनके दोष निवारक तथा अन्य अनेक गुण विशिष्ट, संघनायक साधु को आचार्य कहते हैं। जो मुनि पांच प्रकार के आचार निरतिचार पूर्वक स्वयं पालता है और इन पांचों आचारों में दूसरों को भी प्रवृत्त करता है तथा आचार का शिष्यों को भी उपदेश देता है, उसे आचार्य कहते हैं। जो 36 गुण से युक्त होते हैं। जो सर्वकाल सम्बन्धी आचार को जानता है एवं योग्य आचरण करता हो और अन्य साधुओं को आचरण करवाता हो इसलिए वह आचार्य कहा जाता है। आयार (आचार) 1/11 अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किये गये सम्यग्दर्शनादि में जो यत्न किया जाता है, उसे आचार कहते हैं। आचार के पांच भेद हैं-(1) दर्शनाचार, (2) ज्ञानाचार, (3) चारित्राचार, (4) तपाचार, (5) वीर्याचार। इंदिय (इन्द्रिय) 1/14 इन्द्रिय का सामान्य अर्थ है-शरीर के चिह्न विशेष को इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियं पांच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। 1. भगवती आराधना, गाथा, 419 2. मूलाचार, गाथा, 509/510 3. सागार धर्मामृत, अधि सं. 7/श्लोक 35
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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