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वरंगचरिउ
203 है। हाथी, घोड़ा एवं हाथी की पालकी मानो विमान हो एवं अनेक प्रासाद (महल) वे सब आकाश में बादल की तरह विघटित हो जाते हैं अथवा जैसे बिजली स्थिर नहीं रहती है। ध्वजा, चमर और छत्र से विभूषित सिंहासन आदि वस्तुएँ एवं धान्यविशेष वे सभी वैसे अध्रुव है, जैसे रात्रि में संध्या चली जाती है। मेरे द्वारा मोहवश स्त्रियों का भोग किया गया, वे पुनः दुःख में ले जायेंगी। इन्द्रिय सुख-दुःख को नाश करके गुरुता प्राप्त करूंगा। इन्द्रिय सुख खुजली के समान है, जिसे मुनिराज जानकर मुक्त होते हैं।
यहां जग (संसार) में कोई भी उत्पन्न वस्तु शाश्वत नहीं रहती है, सभी का यमराज भक्षण करेगा। जैसे जिस दिन मनुष्य उत्पन्न होता है, वैसे ही यमपुरी के पथ में प्रस्थान भी होता है। मनुष्य यौवन रूप तरुणी के मोह-बंधन में बंधा हुआ है, सब कुछ ग्रसित करने पर भी तृप्त नहीं होता है।
प्राचीन काल में संसार में राजा, बलवान, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, हलधर आदि महापुरुष हुए। वे सभी मृत्यु के मुख में (निरन्तर) पड़े। हमारी यमराज से कौन रक्षा करेगा? अतिबल से हीन, दयाविहीन यमराज रुष्ट होकर इस तन (शरीर) का भक्षण करेगा।
घत्ता-जिन्होंने शुभनिधि को प्राप्त किया है एवं देवता से भी श्रेष्ठ कहाँ गये? श्री प्रवर कुलकर कहाँ गये? भूमि-सहायक भरत कहाँ गये? और भुजबली समान अन्य कहां गये? .
19. अशरण भावना हमारा जीवन क्रीड़ा (खेल) के समान है। मृत्यु के द्वारा सुरेन्द्र (इन्द्र) के भी प्राण जाते हैं। जो-जो सब कुछ संसार में दिखाई देगा, वह-वह मैं असार मानता हूँ। जीव आशा में अशरण परिभ्रमण करता है, जल, थल और आकाश में अनेक दुःख-समूह को प्राप्त करता है, फिर नरक में दीर्घकाल तक निवास करता है, तिर्यंच भी होता है, विविध (अनेक) शरीर ग्रहण करता है और छोड़ता है। शरण में रहते हुए भी बुढ़ापा एवं मरण को प्राप्त करता है, सभी कोई जन्म-मरण से भयभीत रहते हैं, तो भी सुख प्राप्त करने की इच्छा करते हैं। जरा-मरण करते हुए कौन-सा सुख है, मैं चौरासी (84) लाख योनियों में भ्रमण करता हूँ।
स्त्री और धन में जीव अंधा है, निरन्तर ही अनेक दीपों में भ्रमण करता है। चतुर्गति संसार की अवस्था देखो, जिनेन्द्रदेव के वचनों की औषधि बिना सभी अनिष्ट है। मिथ्यात्व में अलंकृत होकर पाप में लगा रहता है एवं जीव स्वर्ग एवं मोक्ष को प्राप्त नहीं करता है। मरण के भय से