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वरंगचरिउ हूँ | जैसे मुझे अश्व के द्वारा हरण किया गया था, वैसे ही मेरे तात (पिता) के ऊपर संकट है। जिसने युद्ध जीता था और जिसके कारण सुषेण रणभूमि से भागा था, उसे मैं जीतूंगा और अनेक बार चरणों में गिराऊँगा । पश्चात् दूत को आह्वान किया और कहा- वहां जाओ, जहां वह प्रचंड बकुलाधिप है ।
क्योंकि मेरे हृदय में राजा की सीमा की शल्य है । बकुलाधिप सुभट व मल्ल लोगों में विख्यात है। उससे कहो कि वह कितना भी संग्राम करे अथवा जीवन की प्रतीक्षा करे। तुम्हारे ऊपर वरांग राजा चढ़ाई करेगा और प्रियबांधव के बैरभाव के कारण युद्ध करेगा । तब वरांग ने एक पत्र (लेख) दूत को दिया, यह वचन अत्यन्त रमणीय लगते हैं। जो पत्र लिखा गया उसे दूत लेकर जाता है और जाकर सम्पूर्ण बात कहता है । उसे (दूत) सुनकर राजा अपने मन में शंकित होता है और उसके द्वारा अपने मंत्रियों को बुलाया जाता है।
घत्ता - तब मंत्रणा करके, शंका धारण कर, स्वामी - वरांगप्रभु को योद्धा जानकर, अपनी पुत्री लेकर, अर्थ छोड़कर मंत्रियों के साथ वह ( बकुलाधिप ) जाता है ।
14.
कुमार वरांग का यश
राजा के द्वारा नमस्कार किया गया एवं कहता है - हे कुमार ! बलवान भी आपके भय से प्रशंसा करते हैं । हे देव! मुझ दोषी को क्षमा करें, शत्रु पाप कर्म करने पर आपके चरणों में पड़ते हैं। वह कहता है - आप वीर वरांग कुमार हो, मैंने सभी जो दोष किये हैं उन्हें क्षमा करें, मैं आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा में जीवित हूँ ।
कुमार कहता है - आप अपने नगर में रहते हुए सुख पूर्वक (सुख में) राज्य करें। इस प्रकार वचनों से उसे संतोष उत्पन्न हुआ, राजा ने यह जानकर मन में संतोष धारण किया। आशापूर्वक फिर अपनी मनोहर पुत्री को दिया एवं दूसरी विषय - सामग्री भी उस पुत्री के साथ दी । परस्पर स्नेहपूर्ण एवं सोना देकर निकट के संबंध बना करके फिर अपनी नगरी में पहुंचता है। वरांग की यशश्री किस तरह वर्द्धित होती है, जैसे आकाश में सूर्य और चन्द्रमा की ज्योत्स्ना होती है।
पृथ्वी पर समुद्र की सीमा लेकर, पुर, राज्य, नगरादि की विभिन्न प्रकार से सेवा की गई। तब सागरबुद्धि के सुन्दर देश मथुरा राज्य की भूमि भी राजा वरांग के लिए दी गई, कलिंग और विषयों की सम्यक् रिद्धि और सिद्धि भी दी गई, वणिपति ने पुत्र के लिए हिस्सा भी (भूमि का भाग) लिख दिया। मंत्री अनंत के लिए उक्त विषयक पत्र दिया, साथ ही वाराणसी का चित्र और सेना