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वरंगचरिउ
___191 9. कुमार वरांग का अपने नगर की ओर गमन देवसेन कहता है-मैं उस नगर में जाऊँगा और शत्रुओं के विध्वंश की इच्छा का नाश करूंगा। वचन सुनकर कुमार कहता है-श्वसुर जी तुम्हारे वचन रुचते नहीं है। आदेश दीजिए, वहां पर शीघ्र ही जाता हूँ। मुझे मां-बाप के चरण कमल की इच्छा है, यहां रहते हुए दुर्नीति उनके साथ अन्याय नहीं करूंगा, मैं लोगों में छीनने वाला नहीं होऊँगा। उसको सुनकर भूपति (देवसेन) कहता है-तुम्हारे वचनों को सम्प्रति (अभी) करेंगे। तब श्रेष्ठ रथ, हाथी, घोड़ा, चमर, छत्र, वस्त्र, सुरंग आदि सहित दास-दासी, रत्नादि युद्ध में चलते हैं और कुमार के लिए अन्य राजा भी देता है। यह सब कुमार वरांग ग्रहणकर, वणिपति सागरबुद्धि को लेकर जाता है और राजा भी अपनी सेना के लिए धर्मसेन राजा के स्नेह में आसक्त होकर देता है और दिन में ही प्रस्थान करता है। नृपति की सेना चली और पुण्य कार्य किया।
पत्ता-सेना समूह राज्य, नगर छोड़ते हुए, सुपथ में गमन करते हुए, अपने नगर से थोड़े अंतर पर पहुंचती है। जंगल से आते हुए दूत से कहते हैं-जाओ और कुमार के आने की सूचना राजा धर्मसेन से कहो।
___10. राजा धर्मसेन को वरांग के आगमन की सूचना
सागरबुद्धि वहां पर पहुंचते हैं जहाँ पर स्वामी धर्मसेन बैठे हुए थे। राजा ने सुना कि अनेक कला और गुणों से युक्त जिनका नाम वरांगकुमार है, यहां पहुंचे हैं।
राजा कहता है-कौन वरांग, कौन वणिक का आगमन हुआ हैं, वह गुणधारी किस कार्य से आये हैं। उसको सुनकर पुनः वणिपति कहता है-वह वरांग है जो शत्रुओं का त्रास (नाश) करता है। वह वरांग है, जिसे चिरकाल (पूर्वकाल) में घोड़े ने हरण किया था, वह जिसे तुमने युवराज पद धारण किया था। वह वरांग जो गुणदेवी का पुत्र एवं तुम्हारे मन और नेत्रों को आनंदित करने वाला पुत्र है। इन वचनों से नरेन्द्र आनंदित हुआ, मानो वर्षा आगम से वृक्ष समूह आनंदित हुआ हो, मानो दरिद्र के लिए धन प्राप्त हुआ हो, मानो रसपाक के लिए रसायन सिद्ध हुआ हो, मानो हंस का मन सरोवर में रत हुआ हो। तब नरपति (धर्मसेन) अनेक वाद्ययंत्रों के साथ हर्षित होकर जनसमूह के साथ चलता है। वहां पहुंचकर नंदन (वरांग) दिखाई देता है और दोनों का स्नेह लोक में श्रेष्ठ है। नरपति के साथ कुमार नगर में प्रवेश करता है। ब्राह्मणों के लिए दान दिया गया और जयकारा किया गया।