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वरंगचरिउ
189 नगर में जाऊँगा, अपने पिता की शत्रु-शक्ति को नष्ट करूंगा। पश्चात् तब मैं मनोरमा का समागम ठीक समझूगा। यह कार्य अभी मैं नहीं करूंगा। जो दिमाग में है उसकी राजा घोषणा करता है। मेरे वचनों का कैसे पालन नहीं होता है। हे वरांग! मामा के वचन का उल्लंघन मत करो, मेरी पुत्री को ग्रहण कर लीजिए। कन्या-रतन समूह वरांग को दिया गया। इसे ग्रहण करो, इस सुखकीर्ति को नहीं छोड़ो। उसको सुनकर कुमार कुछ भी वचन नहीं कहता है। राजा के द्वारा जाना गया कि कुमार वरांग को यह वचन रुचते हैं। पास स्थित एक मनुष्य के द्वारा भी कहा गया कि प्रभु! मेरी कुमारी को कुमार वरांग को दीजिए। ,
फिर शुभमुहूर्त शुभ दिन देखकर, हर्ष धारण कर एक मंडप की रचना की गई। मनोरमा का विवाह करके अर्पित किया, पुनः अन्य 100 कुमारी भी अर्पित की गई, विवाह होने पर लोक आनंदित हुआ। चैत्यालय (मंदिर) जाकर जिनदेव की वंदना की। वीर राजा ने दान दिया और बंदीजनों के बंधन नष्ट कर प्रशंसित शासन की रचना की। पश्चात् वरांग वणिपति के घर पर लौटा और नववधू को लेकर भोग किया।
घत्ता-रात्रि समय मनोरमा, जग में अंधकार उत्पन्न हुआ, अपने प्रिय के रतिरस को प्राप्त करती है। प्रिय के निकट रमण के लिए पहुंचती है, रत होकर पति के आलिंगन में मुग्ध हो जाती
8. मनोरमा की इच्छा पूर्ण की जिसे चिरसमय तक मन में शंका उत्पन्न नहीं हुई, विधाता के द्वारा मनोरमा के रमण की इच्छा पूर्ण हुई। रात्रि का अंधकार नष्ट हुआ तथा उदयाचल में सूर्य उदित होता है। जहां पर मंडल के साथ श्वसुर (देवसेन) बैठा है, वहां पर कुमार वरांग पहुंचा। तब देवसेन कहता है-देव! शत्रुओं का गर्व से नाश करना है। मैं तुम्हारे प्रसाद से सब कुछ प्राप्त करूंगा, इस प्रकार मैं (कुमारवरांग) अपने पिता के पास जाता हूँ। यहां गांव में नहीं ठहरता हूँ, नृप अपने हाथों से आदेश दीजिए। उसको सुनकर राजा कहता है-यह घर, श्रेष्ठ नगर राज्य भार ले लो, नाना प्रकार से श्रेष्ठ लक्ष्मी ले लो, अन्य भी रूचता हो वह सब कुछ ले लो। परन्तु हे सुन्दर! गमन नहीं करो। ___घत्ता-तुम्हारे बिना रमणीक नगर में सुख सूना है, तुम्हारे बिना राज्य निरर्थक है। अपने नगर में मत जाओ, यहीं पर ठहरो, तुम से जनपद (प्रजा) कृतार्थ हैं।