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वरंगचरिउ
177 इस प्रकार वचन कहकर, पुनः तूर (दुंदुभि) बजाई गई और कुमार को लेकर श्रेष्ठ नगर में प्रवेशित हुए।
घत्ता-तब वहां पर महोत्सव करके, सोने के सिंहासन पर कुमार वरांग को आचरित किया। नृप कहता है-तुम किसके पुत्र हो, मुझे कहो, जो तुमने शत्रु बल को अपहृत कर दिया।
21. कुमार वरांग की प्रशंसा एवं सुनंदा के साथ विवाह खंडक-इस प्रकार प्रभु (देवसेन) के कहे हुए वचनों को सुनकर वरांग ने प्रत्युत्तर दिया मैं आपके श्रेष्ठी का पुत्र हूँ। हे शुभमन वाले राजन! क्या आप मेरा नाम नहीं जानते हो। ___ इस प्रकार सुनकर फिर राजा कहता है-मुझसे क्यों झूठ बोलते हो? यह सुनकर फिर कुमार वरांग घोषणा करता है-सत्पुरुष भी क्या अपने गुणों का पोषण करते हैं? प्रद्युम्न के पुत्र ने जैसे संवर को धारण किया एवं वह नभचर व विद्याधर हुआ अथवा कृष्ण प्रगट नहीं हुआ था, फिर भी नंद का पुत्र था, वैसे ही मैं हूँ। इसलिए वणिपति के तन से उत्पन्न होना, हे राजन! क्या झूठ है? नारायण कृष्ण ने क्या जन्म को धारण नहीं किया। तत्पश्चात् वीर (भट) कहता है-प्रख्यात एक निपुण व्यक्ति की बुद्धि प्रत्यक्ष होती है।
__ वह श्रेष्ठ है, जो अपनी प्रशंसा नहीं करता है। इस प्रकार कोई राजपुत्र है, राजा ने बिना संशय किये मान लिया। इस प्रकार नृप वचन कहता है कि अपनी पुत्री सुनंदा के लिए कुमार वरांग के सदृश किसको माना जाये, वह भगवान् के पुत्र समान है।
वह मनुष्यों में चूड़ामणि एवं श्रेष्ठ बल से युक्त है। यह कोई उत्तम पुरुष है, इसे जो मैंने प्राप्त किया। इस प्रकार राजा वचनों को मन में धारण कर हर्षित हुआ। राजा देवसेन ने विवाह मंडप की रचना करके अपनी पुत्री कुमार वरांग को दी।
फिर कुमार वरांग सुखपूर्वक निवास एवं क्रीड़ा करते हुए नूतन नववधू के साथ रतिसुख को अनुभव करता है। जो धर्म से पृथक् न हो ऐसा कोई मानव होगा, जिसका महत्त्व श्रेष्ठ देवों ने भी घोषित किया है। जो-जो तीन लोक में अच्छा (सुन्दर) दिखाई देगा, वह-वह धर्म का प्रभाव ही
घत्ता-जो मनुष्य जिनधर्म में रत है एवं जीवदया (अहिंसा) और व्रतों का पालन करता है। श्री पुष्पदंत के सदृश निपुण/दक्ष है, वह तेजपाल होगा।
मुनि विपुलकीर्ति की कृपा से पण्डित तेजपाल विरचित इस वरांगचरित महाकाव्य में वरांगकुमार के विजय वर्णन नाम का तृतीय संधि परिच्छेद समाप्त हुआ।।संधि-3।।