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वरंगचरिउ
157 खंडक-इस संसार में कोई भी प्रिय नहीं दिखता है, सभी अपने-अपने कार्य में निपुण हैं, सभी स्नेह के (गोबर में) आकर्षण से बंधे हुए हैं, व्यक्ति धन के लोलुपता के लिए जीता है।
8. मुनिराज का श्रेष्ठ उपदेश क्यों? हर्ष और विषाद करते हो क्योंकि यह तो अपने कर्म के उदय से प्राप्त होते हैं। धन, जीवन और रतिकाम आदि विषय सेवन से निराग हो जाओ क्योंकि कोई भी आगे की इच्छाओं को तृप्त नहीं कर पाता है, सभी इच्छाओं से असंतुष्ट रहते हैं। भव्यजन कर्म के बंधन को जानते हैं, अन्यथा वे भी धर्महीन हो जायेंगे। सम्पत्ति की अतृप्ति से पाप में लीन हो जायेगा। यदि उत्कृष्ट विषाद को नित्य किया करता है तो मानो उसने अनित्यता छोड़ दी है।
हे राजन्! अपने मन में शोक (दुःख) मत करना। बेचारे घोड़े के उपकरण की तरह वह भी घर पर आयेगा। पुत्र के पुण्य से परम सुख की प्राप्ति होगी, पुण्य (प्रताप) से सभी दुःख विनाश को प्राप्त हो जाया करते हैं। सुख-दुःख जीव को संसार में कौन देता है, अपने भव में उपार्जित कर्म देते हैं। पाप से जो-जो अवस्था आती है, उसको सभी को सहन करने की समर्थ (शक्ति) होना चाहिए। पुण्य से घर में दुहने योग्य कामधेनु होती है, पाप के उदय से कोई व्यक्ति वचन भी नहीं बोलता है, गगनचर और कल्पवासी भी होते हैं, गज, नगर और युग समान होते हैं।
जैसे वल्लभ (पति) का वियोग होता है, धन-यौवन जल के बुलबुले के समान होता है, सुख का प्रमाण भी बिजली की तरह क्षणभंगुर होता है, झाग की तरह मनुष्य जन्म निरर्थक/निस्सार रूप है। इस प्रकार जान करके हे राजन्! धर्म को करना चाहिए। ऋषि के वचनों को सुनकर राजा का मन आनंदित हुआ, शीघ्र ही नरपति (राजा) ने मन के विषाद को नष्ट किया। पुनः ऋषि ने मृग के समान नेत्रों वाली वरांग की स्त्री जो शोकातुर थी पश्चात् उसे संबोधित किया। हे पुत्री! निश्चल मन से सुनो-अपने मन में शोक मत करो। शोक करने से तुम्हारा पति नहीं आयेगा, शोक से प्राणों का अंत हो जाया करता है।
घत्ता-श्रेष्ठ मुनि के द्वारा अन्य बहुत से वचनों को कहते हुए संबोधित किया गया। राजा, राजा के पुत्र, मां को संबोधित करते हुए मुनिराज ने कहा कि पर्वत की तरह धैर्य रूप होकर धरण करके का आचरण करो।
खंडक-वह राजा (धर्मसेन) श्रेष्ठ मुनि को नमस्कार करके अपने घर को पहुँचा। उसने सुखपूर्वक श्रेष्ठ युवराज पद सुषेण को दिया।