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वरंगचरिउ
123 परस्त्री शहद में लपेटी तलवार के समान है अथवा जो पापों के परिमाण को लाती है एवं जो चखता है उसके प्राणों का हनन होता है तो भी कामांध पुरुष नहीं मानता है। यदि अंगों को अग्नि में जला दिया जाये अथवा अपनी गर्दन में स्वयं ही बंधन धारण किया करता है और तब निश्चित ही इस भव में दुःख को प्राप्त करता है। लंपट (व्यभिचारी) भव-भव में सुख प्राप्त नहीं करता है अथवा उक्त वचन जो मैंने कहे, व्यक्ति नहीं जानता है। अतः पाणिग्रहण कीजिए तो तस्कर कर्म (चौरकर्म) से भी मूर्च्छित होता हूँ। सकल लोक में धिक्कारा जाऊँगा। इस प्रकार कहते हुए मेरी रक्षा करो, रक्षा करो और संतोष अमृत मन में धारण करो। यह सुनकर वह स्त्री उत्तम-उत्तम कहती है। श्रावक के व्रत को निबद्ध होकर ग्रहण करना श्रेयस्कर है। जो अपने अंगरूप व्रत करता है, उसे सुख भी प्रगट होता है। मैं देव स्त्री-रूप धारण करके तुम्हारे उपसर्ग निवारण के लिए प्रगट हुआ हूँ और तुम्हारी सम्यक् परीक्षा हेतु अपने रूप को तत्क्षण ही मनुष्य रूप धारण किया। जैसे तुम्हारे गुरु वरदत्तदेव हैं, वैसे ही मेरे भी गुरु-त्रिदश देव है, मैंने उनके धर्म वचनों को ग्रहण किया है। हे सुजन! तुमने अपने जन्म को कृतार्थ किया है।
घत्ता-वह (देव) कहता है-अनेक दिन मनवांछित सुखपूर्वक व्यतीत होंगे। फिर मित्रगण एवं स्वजन (परिजन) का समागम पुण्य से प्राप्त करोगे।
दुवई-इस प्रकार कहकर देवी धर्म में रत अदृश्य हो जाती है। वरांग (सुन्दर) विधि (भाग्य) के वश पुनः जिनेन्द्र देव के चरणकमल की भक्ति करता है।
___4. भीलों द्वारा कुमार को प्रताड़ना फिर (पश्चात्) जंगल में जहां कुमार विचरण करता है वहां पर भील मिलते हैं। वे अति निर्दयतापूर्वक कुमार को पकड़ लेते हैं, वे वरांग को कर्कश वचनों से ताड़ित करते है। तब वरांगकुमार के द्वारा विचार किया गया कि मैं नृपपुत्र हूँ और मुझे हीन भील जाति से मित्रता एवं वैरभाव नहीं करना चाहिए, न ही करुणापूर्ण राग-वचन को कहना चाहिए। अन्य वे निर्दयता के भाव से युक्त है। क्या मेरे बल, पौरुष और प्रभुत्व को नहीं जानते हो, यह बोलकर संग्राम नहीं करना चाहिए। वनचर बहुत हैं अथवा हीनकुल में उत्पन्न हुए हैं। जैसे ही कुमार ने उक्त बात मन में धारण की और कुएँ के अंदर गिर पड़ा अथवा वन में रक्षा के लिए निकल जाता है।
हे भगवान्! मेरे हितस्वरूप इन दुखरूप बंधियों से रक्षा कीजिए। वृक्ष के ऊपर बैठा हुआ, वह (वरांग) जिनदेव को स्मरण करता है। जैसे जल में प्रगट होकर देव ने रक्षा की थी है वैसे