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प्रस्तावना
1. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की परम्परा
(i) भाषा विकास की अविच्छिन्न धारा
भाषा और विचार का अटूट सम्बन्ध है। मनुष्य के मस्तिष्क में जब विचार उठे होंगे, तभी भाषा भी आयी होगी। पाणिनि ने बताया है- आत्मा बुद्धि के द्वारा अर्थों को समझकर बोलने की इच्छा से मन को प्रेरित करती है। मन शरीर की अग्नि शक्ति पर जोर डालता है और वह शक्ति वायु को प्रेरित करती है, जिससे शब्द वाक् की उत्पत्ति होती है।
वस्तुतः भाषा बहता जल प्रवाह है जिसकी शब्दावली निरन्तर परिवर्तित होती रहती है। व्यवहार के अनुसार भाषा परिवर्तन अथवा विकास की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ आदि के क्रम से हमारी वर्तमान भाषाओं का विकास हुआ। इनमें प्राकृत, अपभ्रंश और आधुनिक आर्य भाषाओं के विभिन्न क्षेत्रीय रूप प्राप्त होते हैं। लौकिक संस्कृत के साथ प्राकृत भाषाएँ-शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी, महाराष्ट्री, पैशाची एवं अपभ्रंश का विकास हुआ। अपभ्रंश के लौकिक रूपों से विभिन्न आधुनिक आर्य भाषाएँ विकसित हुईं।
परिवर्तनशीलता प्रकृति का नियम है और भाषा भी इस नियम का अपवाद नहीं है। जिस प्रकार पृथ्वी का ही नहीं, किन्तु चन्द्रमा पर के कंकर-पत्थर लाकर उनके विश्लेषण से वैज्ञानिक उनके निर्माण की प्राचीनता का पता लगाते हैं, उसी प्रकार भाषा वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसे तत्त्व और नियम पकड़ लिये जिनके द्वारा वे किसी भाषा के गठन, उसकी प्राचीनता, अन्य भाषाओं से सम्बन्ध तथा विस्तार आदि का पता लगा लेते हैं।
अभी तक यह ज्ञात नहीं हो सका है कि मनुष्य ने बोलना कब से प्रारंभ किया। किन्तु यह सिद्ध है कि भाषा के निर्माण में प्रकृति का योगदान केवल इतना ही है कि मनुष्य के कण्ठ व मुख के अन्य अवयवों की रचना ऐसी है कि उनके सहयोग से वह असंख्य प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न कर सकता है। बस, इस प्रकार की शक्ति को प्राप्त करके मनुष्य ने नाना वस्तुओं के नामों
1. आत्मा बुद्धया समेत्यार्थान मनो युङ्क्ते विवक्षया। मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ।। पाणिनि शिक्षा, श्लोक-6, चौखम्बा प्रकाशन, संस्करण, 1948 2. जसहरचरिउ, संपादक हीरालाल जैन, प्रस्तावना, पृ. 29