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श्लो. : 3
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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से युक्त हो गई, वह विपरीत-एकान्त मिथ्यादृष्टिपने को प्राप्त हो गया, -ऐसा समझना। ___आचार्य-प्रवर आत्मा को चैतन्य-धर्म के साथ-साथ अचेतन-धर्मी भी कह रहे हैं, तो क्या ऐसा नहीं है? .......इस प्रकार की आशंका का उद्भव अपने मन में नहीं करना। आत्मा उभय-धर्मी है। स्वयं विचार करो! एक-धर्म-मात्र का ज्ञाता व व्याख्याता सत्यार्थ-ज्ञाता व व्याख्याता है क्या?..... नहीं है न। सत्यार्थ का ज्ञाता व व्याख्याता वही होता है, जो द्रव्यों के अनंत-धर्मों का ज्ञाता व व्याख्याता होता है, केवली भगवन्त सम्पूर्ण द्रव्यों की सम्पूर्ण पर्यायों के ज्ञाता होते हैं। क्षयोपशमिक ज्ञानी सम्पूर्ण द्रव्यों की कुछ पर्यायों को परोक्ष रूप से जानते हैं। परोक्ष ज्ञाता वही सम्यक् है, जो उभयनय के अनसुार अपने ज्ञान का उपयोग करता है। अतः आत्मा को अनन्त-धर्मात्मक स्वीकार करो। चैतन्य-आत्मा अचैतन्य-धर्मी कैसे है?..... आत्मा को अनन्त-धर्मात्मक तो आप स्वीकारते ही हैं; -अतः अब प्रश्न यह है कि उन अनन्त-धर्मों में चैतन्य-धर्म कितने हैं?... अचेतन-धर्म कितने हैं, ज्ञानी! ध्यान दो- चैतन्य-धर्म तो मात्र दो हैं:1. ज्ञान, 2. दर्शन अर्थात् ज्ञान-दर्शन-स्वभावी आत्मा है, -ऐसा सर्वत्र सुनने एवं पढ़ने में आता है, वह कथन परम स्वभाव-ग्राहक द्रव्यार्थिक नय का है, अनेक स्वभावों में से ज्ञान-स्वभाव को ही ग्रहण करता है
परम-भाव-ग्राहक-द्रव्यार्थिको यथा ज्ञानस्वरूप आत्मा। अत्रानेक-स्वभावानां मध्ये ज्ञानाख्यः परमस्वभावो गृहीतः।।
-आलापद्धति, सूत्र-56 परम-भाव-ग्राहक द्रव्यार्थिक-नय से जैसे आत्मा ज्ञान-स्वरूप है। यहाँ पर आत्मा के अनेक स्वभावों में से ज्ञान नामक परम-स्वभाव को ग्रहण किया गया है, शेष स्वभावों का क्या अभाव है?... नहीं, अभाव नहीं है, सिद्धान्त का नियम है, द्रव्य का अभाव नहीं किया जाता, उनमें से कुछ को गौण किया जा सकता है; किसी की गौणता होती है, तो किसी की प्रधानता। अभाव-वादियों का अभाव-प्रमाण अभाव-रूप ही है, यानी अभाव-प्रमाण का अभाव ही है, वह कोई प्रमाण नहीं है, तत्त्व को प्रधानता या गौणता से ही कहा जाता है, अभाव करके कोई कथन जैन-परंपरा में नहीं होता, -ऐसा महाश्रमणों ने कहा है- अर्पितानर्पितसिद्धेः ।।
__ -तत्त्वार्थसूत्र, 5/32