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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 3
में सभी साधु-जनों को ज्ञात होना चाहिए, यह काल का ही दुष्प्रभाव एवं परिणामों के कालुष्य का प्रभाव है, जिससे कि वर्तमान सामान्य जन भी पूर्वाचार्यों के वचनों पर प्रश्न करने लगे हैं, जो-कि उनकी अल्पज्ञता का ही द्योतक है। सर्वप्रथम आज्ञा-सम्यक्त्व पर ध्यान ले जाना चाहिए, जो जिन-वचन हैं- वे सत्य हैं, उनमें कोई संशय नहीं है, कहा भी है
सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नैव हन्यते। आज्ञा-सिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ।।
-आलापपद्धति, सूत्र -91 में उद्धृत जिन भगवान् के द्वारा कहा गया तत्त्व सूक्ष्म है, युक्तियों के द्वारा उसका घात नहीं किया जा सकता, उसे आज्ञा-सिद्ध नमस्कार ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जिनदेव अन्यथा नहीं कहते, –ये आगम-वचन हैं, इसलिए परम करुणा-बुद्धि से यह कहना है कि ज्ञानियो! अपने क्षयोपशम की वृद्धि करें, परन्तु सर्व-देव एवं पूर्वाचार्यों की वाणी पर शंका करके निःशंकपने का घात करके अपने सम्यक्त्व-गुण का घात मत करो। आप इतने श्रेष्ठ प्रज्ञावन्त दृष्टिगोचर नहीं होते हो, जो-कि वीतरागदेव ने इस स्वरूप-सम्बोधन ग्रंथ में सभी सुधी-जनों को यह समझाया है कि वस्तु को एकान्त से नहीं सोचो, प्रत्येक पदार्थ को अनेकान्त के नेत्रों से देखना सीखो। यदि ये नेत्र नहीं हैं, तो उसकी प्राप्ति का पुरुषार्थ करो, उसके बिना ज्ञान-चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं है। इसप्रकार निःसंशय होकर समझो- सत्यार्थ तो सम्यक् श्रद्धान है, श्रद्धा-गुण के अभाव में वधू के विवाह-जैसी स्थिति है। आस्था निर्मल है, तो मोक्ष-मार्ग निर्मल है, जिसकी आस्था सबल है, वह मोक्षमार्ग के निकट भी है, इसप्रकार अनन्त-धर्मों का बोध अनन्त-धर्म-रूप तो होना ही चाहिए, भले ही भिन्न-भिन्न करके जानें या न जानें, व्याख्यान अपने-अपने विशिष्ट क्षयोपशम का परिणाम है, पर श्रद्धान करना श्रद्धा गुण की पहचान है। जितना गहरा तत्त्व-श्रद्धान उतनी गहरी आत्मानुभूति होगी। एकात्म-तत्त्व को स्वीकार करने वाला समीचीन तत्त्व की प्ररूपणा नहीं कर सकता, वह स्व-पर के ज्ञान को विपरीतता प्रदान कर रहा है, एक पक्ष का ही ज्ञाता रहेगा, द्वितीय पक्ष से परिपूर्ण अज्ञानता को प्राप्त करेगा। ऐसे लोगों से स्वात्म-रक्षा करना अनिवार्य है, कारण क्या है? ....यदि कोई उभय पक्ष से पूर्ण अनभिज्ञ है, तो वह यह आस्था तो लेकर चलता है कि अर्थवान् जो-जो पदार्थ हैं, वे सब सत्यार्थ हैं, उसके ज्ञान में कोई एक पक्ष नहीं है, पर जिसने एक ही पक्ष स्वीकार लिया है, उसकी धारणा विपरीतता