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स्वरूप - संबोधन - परिशीलन
"भट्ट - अकलंक - स्वामी यहाँ पर पदार्थ की उभयरूपता का कथन कर रहे हैं। प्रत्येक द्रव्य में उभयरूपता है, जो द्रव्य सत्-रूप है, वही द्रव्य असत् रूप भी है । स्व-चतुष्टय से पदार्थ सत्-रूप है, पर चतुष्टय से असत् रूप भी है । (चतुष्टय अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा)। कथन तो क्रमशः किया जाता है- जब सत् का कथन होगा, तब असत् का कथन गौण होगा। जब असत्-कथन मुख्य होगा, तब सत् का कथन गौण होगा; परन्तु प्रति- समय सद्भाव ( अस्तित्व) दोनों का ही रहेगा, अभाव एक का भी नहीं होगा । तत्त्व-बोध के लिए शीतलहृदय चाहिए। परिणामों में निर्मलता (विशुद्धि) है, तो सम्पूर्ण तत्त्वों (सात तत्त्वों) का निर्णय समीचीन हो जाता है, जिसके हृदय में वक्रता (संक्लेश- भाव) है, वह तत्त्व - बोध (बंधादि - ज्ञेय) को प्राप्त नहीं करता । जिज्ञासु के लिए (जीव) तत्त्व शीघ्र समझ में आ जाता है, हठ-धर्मी को कभी भी सम्यक्तत्त्व का बोध नहीं होगा ।"
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इसका कारण आचार्य श्री प्रतिबोधित करते हैं- "जिसके अंतःकरण में वक्रता रहती है (सरलता नहीं रहती है), वह स्व-मत की सिद्धि चाहता है । स्व-मत की सिद्धि (की इच्छा) में छलादि का प्रयोग करता है, कषाय-भाव को प्राप्त होता है। जहाँ क्षयोपशम (बुद्धि) का प्रयोग तत्त्व-बोध में होना चाहिए था, वहाँ न होकर अपनी शक्ति (क्षमता) का प्रयोग अतत्त्व की पृष्ठभूमि में एवं अहंकार की सिद्धि में लगा दिया । अहो ! आश्चर्य है- बड़े-बड़े साधु-पुरुष भी इस अहम् के मद में उन्मत्त हो जाते हैं और यथार्थ में स्व-भूल को जानते हुए भी जन-सामान्य के मध्य स्वीकार नहीं कर पाते। ज्ञानियो! ध्यान दो- आगम-वाणी पर व त्याग-तपस्या में किञ्चित् न्यूनता भी रहे; तब भी मोक्ष-तत्त्व की सिद्धि होगी, परन्तु तत्त्व पर विपर्यास करने वाला घोर-त्यागी, तपस्वी, ब्रह्मचारी का कर्म-मोक्ष तो भिन्न है ( दूर है), वह तो मिथ्यात्व से भी मुक्त नहीं हो पाएगा।” उपर्युक्त परिशीलन वस्तुतः एक ललकार के रूप में आत्म जागरण हेतु प्रस्तुत है । एकान्तवादियों के लिए प्रहाररूप है। अनेक धर्म वाले वस्तु को केवल एक धर्म में बहकाने वाले प्रवक्ताओं के लिए एक पाठ - जैसा है ।
आचार्य श्री आगे परिशीलन करते हैं- " (हे) ज्ञानियो! सर्वथा मिथ्यात्व को अकिंचित्कर तो नहीं कहा जा सकता । बंध के प्रत्ययों में यह मिथ्यात्व पहला ही प्रत्यय है । यह दर्शन - मोहनीय द्विमुखी सर्प है, जो उभय- मुख से काटता है, सम्यक्त्व का भी घात करता है तथा चारित्र - गुण का भी घात करता है, इसलिए मुमुक्षुओ! सर्वप्रथम आत्म-रक्षा मिथ्यात्व से करना, सम्यक्त्व के कवच द्वारा प्रथम शत्रु से बच जाया जाए, फिर अविरति, प्रमाद, कषाय, योग आदि इन शत्रुओं को नष्ट करने का सम्यक् - पुरुषार्थ करना चाहिए। साथ में यह भी ध्यान रखना कि मिथ्यात्व स्वयं का भाव - कषाय है ।"
आगे आचार्य श्री कहते हैं- "सर्वप्रथम मेरा सभी वक्ताओं को संकेत है कि उन्हें स्व-पर-हित के इच्छुक होना चाहिए। किसी भी संस्था से जुड़कर बल्कि सीधे आगम ग्रंथों के मूल - स्वाध्याय में जुटना चाहिए, जिससे स्वावलम्बीपना आएगा एवं निडरता भी रहेगी। अपनी सत्यार्थ की बात को कहने में किसी का दबाव भी नहीं रहेगा कि संस्था से निकाल दिया जाऊँगा । ज्ञानी! पुद्गल के टुकड़ों के पीछे भगवद्-वाणी के विपरीत कहने में तेरा मन कैसे जाता है?"
इसप्रकार मुमुक्षु को जगाते हुए वे कहते हैं- "वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन जैसे-का-तैसा करना सम्यक दृष्टि जीव का व्यसन होता है, द्रव्य का प्रतिपादन कभी एक रूप में ही पूर्ण नहीं