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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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भूमिका
परम पूज्य आचार्य 108 श्री विशुद्धसागर मुनि महाराज अपनी 18 से अधिक कृतियों के विषय
1 में जगत्प्रसिद्ध हो चुके हैं। ये लोकप्रिय कृतियाँ तरंगिणी, बोध-देशना, संचय, परिशीलन, बिन्दु, सिद्धान्त, भाष्य, अनुशीलन आदि के रूप में नव-लेखन-शैली की विलक्षणता लिये हुए हैं।
प्रस्तुत रचना "स्वरूप सम्बोधन परिशीलन" उनके आगम-ज्ञान की परिचायक है, जिसमें आचार्य अकलंकदेव की अध्यात्म से ओत-प्रोत कृति “स्वरूप-संबोधन" को विस्तृत रूप से जन-साधारण के लिए सरलता से ग्रहण करने योग्य बनाया गया है। आत्मा के आध्यात्मिक रूप को भी न्याय-शैली में जड़कर अकलंकदेव ने स्याद्वाद एवं अनेकान्त आदि का प्रयोग कर अध्यात्म के रसिक विद्वानों को भी न्याय की जटिलता में उलझा दिया है, -ऐसा कुछ-लोग कहते हैं। इसका परिशीलन आचार्यवर श्री विशुद्धसागर ने अभी तक की इस ग्रंथ की उपलब्ध टीकाओं आदि से पर्याप्त आगे जाकर स्वयं विशुद्धि को ही परिलक्षित कराने में, सरल-भाषा का उपयोग करते हुए अलौकिक कृतित्व का परिचय दिया है। इसकी संधियों तक मात्र विद्वत्ता अपनी पहुँच नहीं रख सकती है, वरन् दिगम्बर जैन द्रव्य वा भाव लिंग धारण किये, साधना की गहराइयों में डूबे, आचार्य-श्री का ही यह सामर्थ्य है, जो श्री भट्ट अकलंक की हार्दिक सद्भावनाओं से हमें परिचित करा सके हैं।
अनेक शोधमय सामग्री के साथ स्वरूप-सम्बोधन का सम्पादन डॉ. सुदीप जी द्वारा 1995 में किया गया था। उन्होंने अनेक जैन भंडारों से इस ग्रंथ की हस्तलिपियाँ तथा प्रकाशित सामग्री संकलित करने का प्रशंसनीय कार्य किया था। मुख्यतः उन्हें ये प्रतियाँ श्रीमती रमारानी जैन शोध संस्थान, मूडबिद्री; जैन सिद्धान्त भवन, आरा; लक्ष्मीसेठ ग्रंथागार, कोल्हापुर; अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन; पण्डित टोडरमल ट्रस्ट, जयपुर से प्रकाशित वृहज्जिनवाणी-संग्रह; सहजानन्द शास्त्रमाला तथा मेरठ से प्रकाशित क्षुल्लक श्री मनोहरलाल वर्णी 'सहजानन्द' के द्वारा प्रदत्त प्रवचन-रूप में प्राप्त हुई। इनके आधार पर सम्पादन एवं अनुवाद तथा विशेषार्थ के लिए उन्होंने निम्नलिखित पद्धति अपनायी है, जो निम्न क्रम में है1. कन्नड़ टीकाकार द्वारा प्रस्तुत उत्थानिका 2. संस्कृत टीकाकार द्वारा प्रदत्त उत्थानिका 3. मूलग्रंथ का पद्य (शीर्षक-रहित) 4. कन्नड़ टीका (महासेन पंडित देव) 5. केशववण्ण या केशववर्य कृत संस्कृत-टीका 6. कन्नड़ टीका की उत्थानिका का हिन्दी-रूपान्तरण 7. संस्कृत टीका की उत्थानिका का हिन्दी-रूपान्तरण 8. मूलग्रंथ के पद्य का प्रति-पद हिन्दी अर्थ 'खण्डान्वय' शीर्षक के रूप में 9. तत्पश्चात् दोनों टीकाओं का हिन्दी-अनुवाद 10. अंततः विशेषार्थ, जिसमें मतार्थ, नयार्थ, आगमार्थ, भावार्थ आदि दृष्टि-बिन्दु अनुसार कथन है,
तदनुसार अपेक्षित स्पष्टीकरण आगम-प्रमाण-पूर्वक किया गया है। अंत में चार परिशिष्ट दिये