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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
ग्रंथ के संपादन के समय कई बार हम वाचकों को कई अंश सीधे हटाने पड़े हैं तथा कई अंशों में परिवर्तन-परिवर्द्धन करने पड़े हैं, पर वहाँ भी मेरी ही नहीं, हम-सब की यह कोशिश रही है कि प्रवचनकार-टीकाकार के मंतव्य को कहीं क्षति न पहुँचे, इसीलिए हमने ऐसा करने से पहले बार-बार आचार्य-श्री से चर्चा की, फिर-भी यदि ऐसी कोई भूल हम से हो गई है, तो इसके लिए व्यक्तिशः मैं और वैसे हम-सब वाचक क्षमा-याचक हैं।
सामान्यतः किसी भी कृति के लिए एक प्रकाशक मिलना ही मुश्किल होता है। "स्वरूप-संबोधन-परिशीलन" का चमत्कार यह रहा कि इसके प्रकाशन के लिए एक नहीं अनेक प्रस्ताव सम्मुख थे, अब मुश्किल यह थी कि इसे किसे प्रकाशन के लिए दिया जाए? ....ऐसे मैं आचार्य-श्री व प्रस्तावित प्रकाशकों में प्रमुख- १. श्री दिगम्बर जैन समाज, सतना व श्री आजाद कुमार जैन, बीड़ी वाले, इन्दौर से चर्चा के उपरांत यह निर्णय लिया गया कि प्रकाशन सम्पादक के निर्देशन में हो और प्रकाशक के रूप में उक्त दोनों प्रस्तावकों को रखा जाए, तदनुसार यह ग्रंथ उक्त दोनों प्रस्तावकों के नाम से प्रकाशित होकर आप-सब तक पहुंच रहा है। ___मूल श्लोकों की व्याख्या के अंत में जहाँ पृष्ठ पूरे नहीं हुए, वहाँ आचार्यों के वचन व आचार्य श्री विशुद्धसागर जी की कुछ सूत्र-रचनाओं से लिये गए विशुद्ध-वचन पृष्ठ-पूर्ति के लिए हमने दिए हैं, पर वे प्रसंग-सापेक्ष नहीं हैं, वे तो शाश्वत वचन हैं। प्रकाशन की जल्दी में प्रसंग-सापेक्ष-वचन नहीं दिये जा सके; पर आप देखेंगे कि वे शाश्वत वचन भी कम-महत्व के नहीं हैं........... | __ मैं खासकर उन सभी पुण्यार्जकों का भी आभारी हूँ, जिन्होंने ग्रंथ के प्रकाशन में आर्थिक संसाधन जुटाए और मैं आभारी हूँ अपने परामर्शदाता संपादकोंडॉ. शीतलचन्द्र जी व डॉ. श्रेयांस कुमार जी तथा सहयोगी डॉ. श्रीरमण मिश्र और श्री आनन्दकुमार जैन व श्री प्रफुल्लकुमार जैन, जानकीपुरम् का भी, जिन्होंने अपना अमूल्य, या यूँ कहें कि बहु-मूल्य समय निकालकर प्रूफ संशोधन/संपादन के कार्य में मुझे सहयोग किया। अंत में मैं कम्प्यूटर टाइपिंगकर्ता श्री विकास जैन व मुद्रक शिवम् आर्ट को भी स्मरण इसलिए कर लेना चाहता हूँ कि उनके दत्त-चित्त-भाव से यह प्रकाशन असमय समय पर हो पा रहा है और आप-सब के हाथों तक पहुँच पा रहा है। इसमें होने वाली अशुद्धियों व असावधानियों के लिए मैं व्यक्तिशः क्षमा-याची हूँ।
- वृषभ प्रसाद जैन