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परिशिष्ट-2
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समता - शत्रु-मित्र में, सुख-दुःख में, लाभअलाभ और जय-पराजय में हर्ष - विषाद नहीं करना या साम्य-भाव रखना समता है । - जै.द.पा.को., पृ. 239 समतंभद्र आचार्य - मूल- संघ विभाजन के अनुसार आप उमास्वामी के शिष्य या उनके विल्कुल समीप पूर्व-वर्ती आचार्य हैं। आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं—
1.
षट् खंडागम के प्रथम पांचों खंडों पर टीका,
कर्म-प्राभृत- टीका,
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स्वरूप- संबोधन - परिशीलन
में होता है। यहाँ सत् का अर्थ सत्व है अर्थात् 'सत्' शब्द अस्तित्व का वाचक है । गति, इन्द्रिय, आदि 1 चौदह मार्गणाओं में सम्यग्दर्शन आदि कहाँ है, कहाँ नहीं है? - यह सूचित करने के लिए सत् का ग्रहण किया जाता है।
जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है, वह सत् है ।
- जै.द.पा.को., पृ. 237
गन्धहस्ति-महाभाष्य,
आप्त-मीमांसा,
युक्त्यनुशासन, जीव-सिद्धि,
6.
7.
तत्त्वानुशासन,
8.
स्वयंभू स्तोत्र
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जिन - स्तुति - शतक |
वि.श. 2–3 (ईस्वी सन् 2 का अन्तिम चरण) आपका समय अधिकांश विद्वानों द्वारा स्वीकार किया गया है ।
- जै. सि. को., भा. 4, पृ. 328
समय-सार
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आचार्य कुन्दकुन्द (ई. 127179) कृत महान् आध्यात्मिक कृति | इसमें T 415 प्राकृत-गाथाएँ निबद्ध हैं । इस पर निम्न टीकाएँ उपलब्ध हैं- 1. आचार्य अमृत चन्द्र कृत आत्मख्याति 2. आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति 3. पं. जयचन्द्र छाबड़ा कृत भाषा वचनिका, जो उन्होंने आत्मख्याति के आधार पर लिखी है।
सामान्य, परिणामी, जीव-स्वभाव, परम-स्वभाव, ध्येय, गुह्य, परम तथा तत्त्व ये सब समयसार के अपर नाम हैं।
- जै. सि. को. भा. 4, पृ. 339 समवर्ती-पना (समवर्तित्व) द्रव्य और गुणों के एक अस्तित्व से रचित होने के कारण अनादि-अनन्त जो सह-वृत्ति से साथ-साथ रहता है, इसे समवर्तित्व नाम से कहा जाता है । वही जैनों के यहाँ समवाय-सम्बन्ध हैं।
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- जै. लक्ष., भा. 3, पृ. 1094 समवसरण / समोशरण / सर्वज्ञ-सभातीर्थंकर की धर्म-सभा को समवसरण कहते हैं। जहाँ समस्त स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी और देवी-देवता समान-भाव से भगवान् का उपदेश सुनते हैं अथवा जहाँ सभी भव्य-जीव तीर्थकर की दिव्य-ध्वनि के अवसर की प्रतीक्षा करते हैं, वह समवशरण है। सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के द्वारा तीर्थकरों के योग्य समवसरण की रचना की जाती है।
- जै. द. पा. को ., पृ. 240