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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-2
श्रुत-स्कंध- जैन आम्नाय में पूजा-विधान आदि सम्बन्धी कई रचनाएँ प्रसिद्ध हैं, इन्हीं में एक आचार्य श्रुतसागर (ई. 1473-1533) कृत श्रुत-स्कंध-पूजा भी है।
-जै. सि. को., भा. 3, पृ. 8|
रहने से स्याद्वाद में संकर-दोष आता है (ऐसी दशा में संकर-दोष का स्वरूप प्रकट होता है।)
-जै. सि. को., भा. 4, पृ. 82 संयम- सम्यक्-प्रकार यमन-करना अर्थात् व्रत-समिति-गुप्ति आदि रूप से प्रवर्तना अर्थात् विशुद्धात्माध्ययन में प्रवर्तना संयम
है।
षट् आवश्यक- श्रावक व साधु को अपने उपयोग की रक्षा के लिए नित्य ही छह क्रिया करनी आवश्यक होती है। इन्हीं को श्रावक या साधु के षट् आवश्यक कहते हैं।
-जै. सि. को., भा. 1, पृ. 293 षट् गुण-हानि-वृद्धि-धर्म और अधर्म द्रव्यों के अपने द्रव्यत्व को कारणभूत शक्ति विशेष रूप जो अगुरुलघु, नामक गुण के अविभाग प्रतिच्छेद से अनन्त भाग वृद्धि आदि तथा षट्रस्थान हानि के द्वारा वर्धमान और हीयमान होता है।
-जै. सि. को., भा. 4, पृ. 8 संज्ञा- आहार आदि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहते हैं। संज्ञा चार प्रकार की है- आहार, भय, मैथुन व परिग्रह संज्ञा। संसारी-जीव इन चार संज्ञाओं के कारण अनादि काल से पीड़ित हैं।
_ -जै. द. पा. को., पृ. 246
-जै. सि. को., भा. 4, पृ. 136 संवर- आस्रव का निरोध-करना संवर कहलाता है अथवा जिससे कर्म रुकें, वह कर्मों का रुकना संवर हैं। यह दो प्रकार का है- भाव-संवर और द्रव्य-संवर।
- -जै.द. पा. को., पृ. 248 संव्यवहार- प्रवृत्ति-निवृत्ति-रूप समीचीन व्यवहार को संव्यवहार कहते हैं।
-जै. लक्ष., भा. 3, पृ. 1135 संस्थान- संस्थान का अर्थ आकृति है। जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर की आकृति बनती है, उसे संस्थान-नाम-कर्म कहते हैं। समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, स्वाति, वामन, कुब्जक व हुंडक, –ये छह संस्थान हैं।
___-जै.द.पा.को., पृ. 250 सकल-परमात्मा- सर्व-दोषों से रहित शुद्ध-आत्मा को परमात्मा कहते हैं। परमात्मा के दो भेद हैं- सकल-परमात्मा अर्थात् अर्हन्त भगवान् और निकल-परमात्मा अर्थात् सिद्ध भगवान्।
-जै.द.पा.को., पृ. 149 सत्अ- सत् शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों
संकर-दोष- स्याद्वादियों के मत में अस्तित्व और नास्तित्व एक-जगह रहते हैं, इसलिए अस्तित्व के अधिकरण में अस्तित्व और नास्तित्व के रहने से और नास्तित्व के अधिकरण में नास्तित्व और अस्तित्व के