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परिशिष्ट-2
द्रव्यार्थिक नय है । यह वस्तु को जानने का एक दृष्टिकोण है, जिसमें वस्तु के विशेष रूपों से युक्त सामान्य रूप को दृष्टिगत किया जाता है। जैसे- मनुष्य, देव, तिर्यंच आदि विविध रूपों में रहने वाले एक जीवसामान्य को देखना या कहना कि ये सब जीव द्रव्य हैं।
- जै. द. पा. को., पृ. 127
स्वरूप - संबोधन - परिशीलन
ध
धर्म-द्रव्य - यह एक स्वतंत्र द्रव्य है, जो गति-शील जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी है। धर्म-द्रव्य समस्त-लोक-व्यापी अखण्ड द्रव्य है; इसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का अभाव होने से यह अमूर्त भी है । धर्म-द्रव्य की मान्यता अन्य दर्शनों में नहीं है, किन्तु आधुनिक विज्ञान इसे ईथर के रूप में स्वीकार करता है ।
- जै.त.वि., पृ. 235 धौव्य- द्रव्य की स्वभाव-रूप स्थिरता का नाम ध्रौव्य है।
- जै. द. पा. को ., पृ. 131
न
नमोऽस्तु शासन - मोक्ष मार्ग में विनय का प्रधान स्थान है, वह दो प्रकार की होती है- निश्चय व व्यवहार। अपने रत्नत्रय रूप गुण की विनय निश्चय है और रत्नत्रय-धारी साधुओं आदि की विनय व्यवहार या उपचार-विनय है। लोकानुवृत्तिविनय, अर्थ-निमित्तक विनय, कामतंत्र विनय,
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भय-विनय और मोक्ष - विनय - इसप्रकार विनय पाँच प्रकार की है ।
मोक्ष - विनय के पाँच भेद हैं- ज्ञान-विनय, दर्शन - विनय, चारित्र - विनय, तप-विनय और उपचार-विनय ।
- जै. सि. को. भा. 3, पृ. 555-556 टिप्पणी- जैन-धर्म-परंपरा में साधु- संघ ( आचार्य, उपाध्याय व साधु) के प्रति नमोऽस्तु का उच्चारण करके विनय प्रकट की जाती है। अरिहन्तों व सिद्धों की भी नमोऽस्तु के द्वारा आराधना व भक्ति की जाती है। नमोऽस्तु के द्वारा अपने आराध्यों के प्रति विनय प्रकट करते हुए उनकी सत्ता/भगवत्ता को स्वीकारने का नाम ही वस्तुतः नमोऽस्तु शासन है ।
नय - वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म को सापेक्ष रूप से कथन करने की पद्धति को नय कहते हैं अथवा ज्ञाता और वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं। वास्तव में अनन्त धर्मात्मक होने के कारण वस्तु अत्यन्त जटिल है। उसे जाना जा सकता है, परन्तु आसानी से कहा नहीं जा सकता। उसे कहने के लिये वस्तु का विश्लेषण करके एक-एक धर्म को, क्रमशः निरूपित करने के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है, - ऐसी स्थिति में वक्ता वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य करके और शेष धर्मों को गौण करके सापेक्ष रूप से कथन करता है और इसतरह वस्तु को पूर्णतः जानना आसान हो जाता है । यही नय का कार्य है।