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श्लो. : 23
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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लोक-प्रपञ्च से कोई प्रयोजन ही नहीं है, लोकाचार से भिन्न लोकोत्तराचार में जो लवलीन हैं, उन्होंने जान लिया है सत्यार्थ आत्मा के स्वरूप को एवं जगत् के स्वार्थपूर्ण रूप को। अन्तरंग में विशिष्ट आस्था का उदय जहाँ हुआ है, आत्म-धर्म तो पूर्णरूपेण आत्माधीन ही है, संसार की विडम्बना भी क्यों न हो रही हो, फिर भी वे अपने अंतःकरण को मलिन नहीं करते हैं।
ज्ञानियो! यहाँ पर सम्पूर्ण विषय को आत्मस्थ होकर समझना, व्यवहार का अभाव नहीं समझना, निश्चय-तत्त्व की प्रधानता समझना, बार-बार व्यवहार का कथन करने से निश्चय-तत्त्व का सम्यक् सत्यार्थ स्वरूप का कथन नहीं हो सकेगा और जो सर्वथा निश्चय-मात्र को कहना है, उससे व्यवहार-तत्त्व का व्याख्यान नहीं हो सकता, उभयनय का आलम्बन कर, परमार्थ-स्वरूप को समझना चाहिए तथा उसी की प्राप्ति का पुरुषार्थ करना चाहिए।
अहो! उन परम योगीश्वरों को निहारो, जहाँ भगिनी का भी अपमान हो रहा था, आभूषण डाकुओं ने छीन लिए, माँ पूँछती रही, फिर भी आँख खोलकर नहीं देखा, न यही कहा कि आगे डाकू हैं, धन्य हो, ऐसे निस्पृही आदर्श श्रमण को जहाँ माँ एवं बहन का राग भी स्पर्श नहीं कर सका। ऐसी चर्या के धारक परम-योगीश्वर ही होते हैं। जाति, पंथ, आम्नाय, संघ के राग में लिप्त साधक को अभी वैराग्य की आवश्यकता है; समाज, देश, राष्ट्र का विमोह यदि विराजा है हृदय में, तो अभी वे स्वात्म-निष्ठा से दूर हैं। सच्चे साधक मात्र स्वात्म-द्रव्य एवं पंच-परमेष्ठी मात्र से प्रयोजन रखते हैं, अन्य पर-गत तत्त्वों से आत्म-तत्त्व को पृथक् रखते हैं, अनादि के प्रपंचों में अपनी ध्रुव अखण्ड ज्ञायक-भाव-प्रदायिनी पर्याय को पर-पदार्थों के ध्यान में समाप्त नहीं करते, उन्हें वीतराग-मुद्रा भार-भूत नहीं लगती, मोक्ष-दायिनी मुद्रा को मुद्राओं के व्यापार में रमण नहीं कराते। सर्वज्ञता को सिद्ध करने वाली मुद्रा को जो जीव लोक-मुद्राओं में नष्ट करता है, वह मणियों को भस्म करके झूठे बर्तनों को साफ करता है। अहो! मेरे स्नेही साधको! जिन-मुद्रा को पुद्गल के टुकड़ों में नहीं लगाना, यह मुद्रा तो चक्री-पद का भी त्याग करके प्राप्त की जाती है, फिर उसे पुनः जड़-पैसों में अथवा पैसे वालों में नहीं लगाना। ____व्यवहार-तीर्थ के पीछे निश्चय-तीर्थ की जननी जिन-मुद्रा के साथ व्यभिचार नहीं करना, कारण-कार्य विपर्यास नहीं करना। कारण क्या है?.... ज्ञानी! जो जीव परमार्थ-भूत पर-निरपेक्ष अद्वैत-धर्म की प्राप्ति करने में समर्थ नहीं हैं, ऐसे गृहस्थों को तो तीर्थ-स्थापना, दान-पूजा, धर्मायतन की रक्षा आदि करना चाहिए, उनके लिए वही सम्यक्-क्रिया परम्परा से मोक्ष का कारण है, पर साधक तो बहुत ऊँचे की क्रिया में