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1881
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 22
श्लोक-22
उत्थानिका- शिष्य आचार्य-भगवन् से प्रार्थना करते हुए पृच्छना करता हैभगवन्! मोक्ष की प्राप्ति कैसे होगी? .........भावना भाते-भाते ही क्या मोक्ष मिल जाएगा?...... समाधान- अहो ज्ञानी! ध्यान से सुनो'यस्य मोक्षेऽपि नाकाङ्क्षा स मोक्षमधिगच्छति।
इत्युक्तृत्वाद्धितान्वेषी काङ्क्षां न क्वापि योजयेत् ।। __ अन्वयार्थ- (यस्य) जिसके, (मोक्षे अपि) मोक्ष की भी, (आकांक्षा) अभिलाषा, (न) नहीं होती, (सः) वह भव्य मनुष्य, (मोक्ष) मोक्ष को, (अधिगच्छति) प्राप्त कर लेता है, (इति) ऐसा, (उक्तत्वात्) सर्वज्ञ-देव द्वारा अथवा आगम द्वारा कहा गया है, इस कारण, (हितान्वेषी) हित की खोज में लगे हुए व्यक्ति को, (क्वापि) कहीं भी, (कोई भी) (आकांक्षा) आकांक्षा/इच्छा, (न योजयेत्) नहीं करनी चाहिए ।।22 ||
परिशीलन- आचार्य-प्रवर नव-नव माणिक्यों की माला बनाते चले जा रहे हैं, भव्यो! यही भाग्य मानकर चलना, अन्य भाग्य की बात नहीं करना, जो आज खोटे पंचम काल में भी जिन-मुद्रा-धारियों के दर्शन एवं जिनवाणी श्रवण, पाठन करने को प्राप्त हो रही है। उन जीवों से पृच्छना कर लेना कि आपको कैसा लगता था, जो-कि न जिन-मुद्रा के दर्शन कर पाये, न ही सिद्धान्त-शास्त्रों को पढ़ पाए, वे पूर्व विद्वान् अपने कक्ष में वस्त्र उतार-उतार के विचार करते थे- अहो! कैसी होगी, वह वीतरागी निर्ग्रन्थों की मुद्रा?... आज अहोभाग्य है! सर्वत्र सिद्धान्त-ग्रन्थ एवं निर्ग्रन्थों के दर्शन-प्रवचन हो रहे हैं। सत्यार्थ-मार्ग का दिग्दर्शन कराने वाले गुरुओं की देशना प्राप्त हो रही है। वे बड़भागी हैं, जो तत्त्व को रुचि-पूर्वक सुनते एवं सुनाते हैं, उनका ही जीवन पावन है, वे वचन, मन, तन पुण्य-रूप हैं, जो देव-शास्त्र-गुरु के प्रति उत्साह से पूर्ण हैं। वाग्गंगा में निमग्न होने वाले भोगों की वैतरणी में कौन निमग्न
1. कुछ विद्वान् 'यस्य मोक्षेऽपि' के स्थान पर 'मोक्षेऽपि यस्य' पाठ मानते हैं, पर बहु-प्रति-उपलब्धता के आधार
पर व रचनाकार की सीधे कहने की प्रवृत्ति के आधार पर यस्य मोक्षे पाठ ही समीचीन लगता है, अर्थ की दृष्टि से दोनों पाठों में कोई अन्तर नहीं है।