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श्लो. : 21
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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मन्दता में स्वर्ग मात्र का साधन था, परम निर्वाण का जनक अतृष्णा-रूप आत्म-वैभव ही है, जहाँ ध्यान-ध्याता, ज्ञान-ज्ञाता का भी भेद समाप्त हो जाता है, विश्वास रखना- जैसे भोगी के लिए पर-रमणी का रमण व्यभिचारी बना देता है, वैसे ही योगी को पर की चिन्ता और वन, भव, भक्त व समाज का राग ही निजात्म-रमणी से पृथक् कर देता है। जहाँ निज-स्वभाव से योगी किञ्चित् भी भिन्न हुआ नहीं कि आत्म-ब्रह्म का अभाव हुआ और प्रज्ञा का व्यभिचार हआ, निर्वाण के लिए जगत निर्माण का विकल्प भी अब्रह्म-भाव है। अर्थ-दृष्टि से योगीश्वरों को पूर्ण पृथक् रहने की आवश्यकता है, "स्त्री-श्री' दो से त्यागी जितना सुरक्षित रहेगा, उतना ही धर्म सुरक्षित रह सकेगा, अन्यथा शरीर-लिंग तो बना रहेगा, पर अलिंगी आत्म-धर्म नष्ट हो जाएगा। सम्पूर्ण अनर्थों की जड विषय-तृष्णा को समझो, आगम में धन-श्री नाम की नारी का वर्णन आता है, उसने विषयाशा में आकर अपने लड़के के ही टुकड़े कर दिए थे, यह तो आगम-दृष्टान्त है; आज तो इस तरह के प्रति-दिन के दृष्टान्त दिख रहे हैं, माँ ही एक भव में अनेक लालों के रक्त को बहा देती है, गर्भपात-जैसे निकृष्ट कर्मों को कर मातृ-भाव को कलंकित कर दुर्गति का बन्ध कर लेती है, क्या पंचेन्द्रिय को मारने वाला स्वर्ग-मोक्ष जाएगा?.......अहो! जनक-जननियो! चाहे आप नन्दीश्वर पर्व कर लें, चाहे दसलक्षण पर्व करें, कितने ही व्रत पाल लो, पर लाल को न पाल के गर्भ में नष्ट कराना घोर पाप है और जब-तक आप प्रायश्चित्त नहीं ले लेते, तब-तक यह घोर पाप नष्ट होने वाला नहीं है, यह-सब विषय-तृष्णा का कुफल है।
धन की तृष्णा तो त्यागियों को त्याग से च्युत कर रही है, जो झोपड़ियों में रहते थे, वे बेचारे सत्य-वैराग्य के अभाव में खण्ड पर खण्ड, भवनों के बनाने में मोक्ष खोज रहे हैं, जबकि सभी को ज्ञात है कि भवनों का नष्ट होना निश्चित है, तो-फिर आत्म-भवन को क्यों नष्ट कर रहे हैं, वनों में रहने वाले साधक द्वारा भवन-निर्माण! चिन्तवन का विषय अवश्य है। जिन-दर्शन में योगीश्वर अहिंसा महाव्रती होते हैं, कृत-कारित-अनुमोदना से षट्काय के जीवों की रक्षा करते हैं, वे सर्पवत् अनगारी होते हैं, निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय मात्र जिनका लक्ष्य है, अन्य नहीं, अन्यथा नहीं, वित्तराग-वीतरागता का साधन किञ्चित् भी नहीं है, –यह निश्चय कर जानो। उपाधियों की तृष्णा महातृष्णा है, जो साधक की साधना में महामारी रोग है, तात्पर्य समझना- तृष्णा से साध्य सिद्ध नहीं होता। आत्म-प्राप्ति की तृष्णा भी आत्म-तत्त्व की प्राप्ति नहीं होने देती, फिर भी रागी तृष्णातुर हैं, खेद है कि जीव आत्म-विवेक को खोकर तृष्णा में लिप्त हो रहे हैं, मेरे मित्र! यदि असार संसार पार होना चाहते हो, तो अब तृष्णा का त्याग करो।।२१।।
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