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ग्रन्थ- परिचय
"स्वरूप-संबोधन" 7वीं शताब्दी के प्रसिद्ध नैयायिक आचार्य भट्ट श्री अकलंक देव जी की अध्यात्म- परक रचना है। मूल रचनाकार आचार्य भट्ट श्री अकलंक देव ने इस रचना में जहाँ एक ओर न्याय - शास्त्र की गंभीर गुत्थियों को सुलझाते हुए न्याय की शैली में ही अभिव्यक्ति की है, वहीं दूसरी ओर अध्यात्म-रस की कल-कल करती सरिता में भी गहन अवगाहन किया है। न्याय - शास्त्र और न्याय की शैली आज के सामान्य जन के लिए अबोधगम्य ही नहीं, दुरूह भी है; परिशीलनकार आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने अपने इस "स्वरूपसंबोधन-परिशीलन" में इस अबोधगम्यता और दुरूहता को समूल दूर किया है, इसलिए यह कृति न्याय - शास्त्र व अध्यात्मशास्त्र-समुद्र से पार उतरने की चाह रखने वाले साधकों के लिए महत्त्वपूर्ण नौका-जैसी बन गयी है, जिसमें भारतीय न्याय - शास्त्र के गंभीर प्रश्नों का सहज सरल प्रवचनात्मक शैली में समाधान करते हुए अध्यात्म-रस का पान कराया गया है।