________________
श्लो. : 11
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
1109
को सम्यक्त्व कहा गया है, वहाँ शेष तत्त्वों के श्रद्धान के अभाव का कथन कहाँ किया गया है?..... प्रत्येक तत्त्व को अनेकान्त दृष्टि से समझने की आवश्यकता है। बिना अनेकान्त के वस्तु-स्वरूप का यथार्थ-बोध संभव नहीं है, इसलिए सत्यार्थ को जानने के लिए अनेकान्त की शरण में जाना चाहिए। जहाँ आत्मा पर श्रद्धा सम्यक्त्व है, वहीं सातों तत्त्वों पर श्रद्धा आ जाती है, अजीव को जाने बिना जीव का बोध होता नहीं। मुख्य तत्त्व दो ही हैं जीव और अजीव, शेष इन्हीं दो के संयोग-वियोग भाव हैं। जो पदार्थ जैसा है, उस पर वैसा ही विश्वास करना सम्यक्त्व है। जीव को मानें, तो अजीव को न मानें, वह मिथ्यात्व से युक्त ही है, आत्म तत्त्व से सातों तत्त्वों पर श्रद्धान स्वीकारना चाहिए। सात तत्त्वों पर सिद्धान्त ही सम्यक्त्व एकान्त रूप नहीं, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की तीन मूढ़ता, छ: अनायतन, आठ मद, शंकादि आठ दोष-रहित, आठ अंग-सहित श्रद्धान करना व्यवहार-सम्यक्त्व है। उभय-सम्यक्त्व का आराधक भव्य मुमुक्षु जीव ही परम निर्वाण दशा को प्राप्त होता है, बिना सम्यक्त्व की आराधना किये त्रिलोक का कोई भी जीव मोक्ष-तत्त्व की सिद्धि नहीं कर सकता, -ऐसा जानना चाहिए तथा मानना भी चाहिए और तदनुसार आचरण भी करना चाहिए ।।११।।
*
**
* नहीं भटकाती
श्री
विशुद्ध-वचन
* यदि होती सुख-शान्ति विषय भोगों/कामनाओं में तो.... क्यों लेते योगी योग की शरण....?
और न श्रीमती, भटकाती तो केवल अज्ञानी मति, जो स्वयं को भूल पीछे हो लेती श्री के.......
* जो उतर गया निज में वो तर गया भव से....।
और
श्रीमतियों के भी....|