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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 10
जो बहिरंग को हेय मानता है, उस भोले जीव को अभी जिनागम से द्वेष है, मोक्ष-मार्ग के सत्यार्थ-परिचय से वह रिक्त है, तत्त्व-ज्ञानी जीव अन्तरंग-बहिरंग उभय-तप से स्वात्म-सिद्धि को स्वीकारता है, जैसे- बिना बर्तन तपे, बर्तन में रखा दुग्ध नहीं तपता, उसीप्रकार बिना बहिरंग-तप किये, अन्तरंग-तप नहीं होता, बिना तप किये अन्तरंग-बहिरंग शुद्धि नहीं होती, बिना उभय-शुद्धि के शुद्धात्म-तत्त्व की उपलब्धि नहीं है, ज्ञानियो! ध्यान रखना- तप से आस्रव, बन्ध नहीं होता, अपितु संवर और निर्जरा होती है। तप से बन्ध ही होता, तो यह तो बताओ कि निर्जरा किससे होती है?..... संवर किससे होता है? .....आगम-सूत्र कभी उत्सूत्र नहीं होते। आगम वचन है, -यह ध्रुव सत्य है। तपसा निर्जरा च।।
___ -तत्त्वार्थसूत्र, 9/3 अर्थात् तप से निर्जरा होती है और 'च' शब्द से संवर भी ग्रहण कर लेना चाहिए। सहज भाव से जिज्ञासा स्वयं प्रकट करना चाहिए, बन्ध प्रत्यय तो आगम में पाँच कहे हैं- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग -इन प्रत्ययों में से एक भी प्रत्यय 'तप' नहीं है, इसलिए ध्यान रखना तप की पूर्णता से मोक्ष मिलता है। ये अवश्य है कि तप की असमग्रता से योग के स्पन्दन एवं शुभ-उपयोग के माध्यम से अशुभ की निर्जरा एक शुभ का बन्ध होता है, परन्तु सम्यक्त्व-सहित उक्त बन्ध भी परम्परा से मोक्ष का साधन है, अतः तप किसी भी स्थिति में हेय नहीं। बिना तप के किसी भी काल में, किसी भी क्षेत्र, किसी भी द्रव्य से, किसी भी भव से निर्वाण की प्राप्ति नहीं होगी। अन्तिम तप ध्यान है, जो-कि शुक्ल-ध्यान के रूप में सयोगकेवली एवं अयोगकेवली गुणस्थान तक होता है। ___ज्ञानियो! अन्तरंग नेत्र खोलकर अंतःकरण को पवित्र कर आगम के परिवेश के अनुसार चिन्तवन की धारा बनानी चाहिए, अपने चिन्तवन के अनुसार आगम की चर्चा नहीं करना चाहिए। कर्मों से मुक्ति आपके चिन्तन से नहीं मिलगी, कर्मों से मुक्ति तो तपस्या के द्वारा ही मिलेगी। किसी के चिन्तवन से वस्तु-व्यवस्था भंग नहीं हो सकती है, उसका सम्यक्त्व अवश्य समाप्त हो सकता है, परन्तु वस्तु की स्वतंत्रता पर आँच आने-वाली नहीं है। कर्मों से मुक्ति स्वयं के अन्तरंग-बहिरंग हेतुओं से