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श्लो. : 10
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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प्रत्येक जीव अपने स्व-कर्मों का कर्ता स्वतंत्र ही है, किञ्चित् भी पराधीनता नहीं है। भगवान् आदिनाथ स्वामी ने यही कहा था कि मैंने जो राजा की अवस्था में बैलों के मुख में मुषीका (बैलों के मुख पर लगाया जाने वाला बंधन विशेष) लगाया था, उसका परिणाम मुझे ही स्वीकारना पड़ा।
इस कारिका में तीन विषयों का कथन किया गया है- कर्म का कर्ता, कर्म-फल का भोक्ता एवं कर्म-बन्धन से पूर्णतया मुक्त होना।
इससे ईश्वर सांख्य, बौद्ध, मीमांसकों की आत्म-विषयक मान्यताओं का निरसन हो जाता है, -उक्त कथन उनके अभिप्राय की सिद्धि में बाधक है। सांख्य का प्रारूप कूटस्थ नित्य होने के कारण कर्मों का कर्त्ता हो सकता, अतः कर्मों का कर्ता आत्मा है, ईश्वर नहीं, -इससे सांख्य-मत को शांत किया गया है। बौद्धों के यहाँ सभी पदार्थ क्षणिक हैं, अहो क्षणिकवादियो! स्वयं विचार करो- प्रथम क्षण में उत्पन्न वस्तु द्वितीय क्षण में नष्ट की गईं, तो उनका भोक्ता कौन होगा?.......क्षणिक सिद्धान्त में न जन्य-जनक-भाव घटित होता है, न गुरु-शिष्यता; कारण कि- द्वितीय क्षण में सभी विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। वहाँ जब आत्मा क्षणिक, कर्म क्षणिक, फिर किसका भोक्ता कौन होगा?.........ज्ञानियो! ध्यान रखो- आत्मा द्रव्य-दृष्टि से त्रैकालिक ध्रुव व नित्य है, पर्याय-दृष्टि से क्षणिक है। उभय-दृष्टि का जहाँ अभाव है, उसके लिए स्याद्वाद् वाणी का ज्ञान करना चाहिए, जिससे मिथ्या-धारणा का अभाव हो जाए। आत्मा सनातन, अविनाशी, पर-भावों से अपरिणमनशील है, निज-स्वभाव से परिणमनशील है। निश्चय से न पर का कर्ता है और न पर आत्मा का कर्ता है, वह तो मात्र निज-स्वभाव का कर्ता है, और टंकोत्कीर्ण परम-ज्ञायक-स्वभावी है। व्यवहार से बन्ध की अपेक्षा से जीव के अनेक प्रकार के कार्य करने के भव आते हैं, वे ही भव नाना प्रकार के कर्म-बन्ध के कारण हैं, कर्म-बन्ध स्व-हेतुक है, पर-हेतुक नहीं है। निज-भव से ही कर्म-बन्ध होता है। पर-भव से कर्म-बन्ध नहीं होता। ज्ञानी! ध्यान दो- जब बन्ध स्व-हेतुक है, तब मोक्ष भी स्व-हेतुक ही है, वह भी पर-हेतुक नहीं है। अन्तरंग-बहिरंग उपाय जीव स्वयं करेगा, तभी मोक्ष-तत्त्व की सिद्धि होगी। अन्तरंग उपाय भाव-विशुद्धि एवं अन्तरंग छ: तप तपना है। बहिरंग कारण अनशनादि बाह्य तपों को तपना है। दिगम्बर, निर्ग्रन्थ, वीतरागी मुनि-मुद्रा को बुद्धि-पूर्वक स्वीकार करना। ज्ञानियो! अन्तरंग कारण के लिए बहिरंग कारण का होना अनिवार्य है। बहिरंग तप दुष्कर-रूप से तपा जाता है, वह अन्तरंग-तप के लिए ही तपा जाता है,