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श्लो. : 9
आत्मा को नहीं पहचान पा रहा है। गृहस्थ- जन आरंभ में लीन होते देखे जाते हैं । ज्ञानी विषय को परमार्थ-दृष्टि से समझना, जैसे- कोई शासन का बड़ा अधिकारी सामान्य अनुचरों को आज्ञा देकर कार्य ही तो कराता है, वह स्वयं के हाथों उन कार्यों को नहीं करता, फिर भी सम्पूर्ण कर्त्तापन का भाव उसका ही होता है, उस कार्य के अच्छे-बुरे होने का हर्ष - विषाद-भाव का वेदक भी वही अधिकारी होता है, उसी प्रकार उन साधकों की अवस्था समझना। व्यवहार-तीर्थ की वृद्धि तो समझ में आती है, परन्तु स्वच्छ, निर्ग्रन्थ, जिन-लिंग-भूत जो परमार्थ - तीर्थ है, उसकी वृद्धि पर विकल्प है, कारण परमार्थ-तीर्थ पर भावों से भिन्न है, व्यवहार - तीर्थ के साथ परमार्थ-तीर्थ पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है । ज्ञानियो ! भगवान् महावीर स्वामी का स्वरूप धर्मशालादि बनवाना नहीं था। भगवान् महावीर स्वामी का स्वरूप तो परम वीतराग-दशा, निस्पृह - वृत्ति - रूप था, जिन्हें स्वयं के पिता के गणराज्य पर भी मोह नहीं आया, उन्हें क्षेत्रों, भक्तों, नगरों के राग से भला कैसे विमोह होता ! .. तीर्थकरों की परम्परा मठाधीशों की परम्परा नहीं है, तीर्थकरों की विशद परम्परा गगन के सदृश त्याग-भाव से भरी, निर्लेप एवं निर्दोष रही है । कुन्दकुन्द - जैसे महायोगियों ने जिसका नेतृत्व किया है। उन्होंने अपने समय को स्व- समय, निश्चय - व्यवहार में पूर्ण किया है, आत्म
कोष को भरा था, न कि लोक में साधुवाद - पन्थवाद की वृद्धि को, उन्हें मालूम था कि तीर्थंकर-जैसे पुण्यवानों के नाम भी कुछ समय उपरान्त समाप्त हो जाते हैं, मेरा क्या नाम रहेगा, इसलिए अपने निज - उपयोग की वृद्धि हेतु तथा भव्यों के कल्याण के उद्देश्य से श्रुत - सागर में निमग्न होकर आगम-अध्यात्म की मणियों को अपने ग्रन्थों में गुंफित किया है। उन्होंने भवनों में आत्म-भवन का नाश नहीं किया, यह तो गृहस्थों का धर्म है, साधु-पुरुषों का कार्य तो तप साधना एवं श्रुत की आराधना मात्र है। मेरे मन में ये भाव इसलिए आये हैं कि कहीं सम्पूर्ण - साधु-संस्था इसी कर्तापन में लीन हो गई, तो फिर वर्धमान का वनवास - मार्ग, आत्म-वास - मार्ग मात्र ग्रन्थों में ही निबद्ध होकर रह जाएगा, निर्ग्रन्थ मठों में निवास करने लगेंगे, पर मेरा विश्वास है कि तीर्थंकरों का मार्ग सर्वत्र न सही पर तारों की भाँति चमकता तो रहेगा ही, पूर्ण अभाव नहीं हो सकता, ऐसे भी श्रमण रहेंगे, जो आत्माश्रम में निवास करेंगे, भवनों के निर्माण से अलग रहते हुए स्वात्म की रक्षा करते हुए निर्वाण - मार्ग की साधना में लीन रहेंगे, किसी क्षेत्र-प्रान्त में न बँधकर निर्दोष चारित्र में ही बँधेंगे। ज्ञानियो ! ध्रुव सत्यार्थ-मार्ग पर थोड़ा तो विचार करो, निज-धर्म की पहचान कर्त्तापन में नहीं है । श्रमण-संस्कृति का सत्यार्थ-मार्ग आश्रम - मार्ग नहीं है, आश्रम - विधि में षड्काय के जीवों की हिंसा
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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