________________
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 9
यह सिद्धान्त कभी भी अपनी अचलता का परित्याग नहीं करेगा । अहो! मिथ्यात्व की महिमा कितनी विचित्र है कि अपनी स्वतंत्रता को व्यक्ति किस प्रकार नष्ट कर रहा है! .......किसी ने देवों के हाथ में स्वयं को दे दिया, किसी ने जादू-टोना को तंत्र-मंत्र को, किसी ने नगर-देव को, तो किसी ने कुल देवी को, तो किसी ने अदेवों, तिर्यंचों एवं वृक्षों, खोटे गुरुओं के हाथों में सौंप दिया। इतना ही नहीं, आज धन-पिपासा की वृद्धि को देखते हुए लोक में साधु-सन्तों ने भी भोले लोगों की वंचना प्रारंभ कर दी है। धर्म के नाम पर भयभीत कर धन लूट रहे हैं, कोई श्री - फल को फूँक रहे हैं, तो कोई जीव अपने लाभ को कलशों में निहार रहे हैं, सोने-चाँदी के कलश घरों में रखकर / रखाकर उनका उनमें मन लगवाकर उनकी अपनी स्वतंत्रता का हनन करने में लीन हैं। नग, अँगूठी, मोती, माला इत्यादि में लगाकर सत्यार्थ-मार्ग से वंचित कर रहे हैं । अहो प्रज्ञ ! हमारी बातें आपको लोक से भिन्न दिखाई दे रही होंगी, क्योंकि लोक आत्म-लोक का अवलोकन नहीं है, वहाँ तो लोभ- कषाय, परिग्रह-संज्ञा की पुष्टि अधिक है। सामान्य लोगों से लेकर विशिष्ट जन तक उक्त रोग से पीड़ित हैं। ज्ञानी एक बात पर ध्यान दो- उदाहरण दृष्टि से, किसी दुःखित को बोला गया कि कलश की स्थापना घर में कर लो, संकट दूर हो जाएगा। भूतार्थ दृष्टि से बोलना । वह दुःखित क्या करेगा? शीघ्र ही कलश की स्थापना कर देगा, अब उसका लक्ष्य कहाँ रहेगा. ?....... और हमने कलश स्थापना की है, हमारा कलश सम्पत्ति प्रदान करेगा, प्रत्येक विशिष्ट पर्व पर हमारे संकट दूर करेगा; बस, कलश की विशिष्टआराधना प्रारंभ हो गई। ...अहो प्रज्ञ! सत्य बोलना, 'कलश की आराधना क्यों चल रही है ?...... परिग्रह की कामना के उद्देश्य से या आत्माराधना के लिए ? .....अन्तरंगभाव चल रहे हैं कि मेरी कलश - आराधना शीघ्र फलित होवे और घर में परिग्रह की वृद्धि होवे, ज्ञानी! परिग्रह बढ़े, न बढ़े: वह लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से मिलने वाली वस्तु है, पर माँगने की भावना ने निःकांक्षित अंग का भी अभाव करा दिया; पर में अपना कर्त्ता-पन स्थापित करा दिया, जड़-द्रव्य में चेतन का उस कलश के लिए मेरे प्रति सुख-दुःख का भाव आता है क्या ?... नहीं, ज्ञानी ! अचेतन के लिए चेतन को सुख-दुःख का कर्त्ता भाव आता ही नहीं । एक जीव द्रव्य ही ऐसा है, जो कि व्यवहार- दृष्टि से विरुद्ध धर्म, अविरुद्ध धर्म में जाकर स्व-पर भाव के कर्त्ता - पन को प्राप्त होता है। निश्चय से एकत्व - विभक्त्व - स्वभाव ही जीव का सुन्दर भाव है, उस पर लक्ष्य ही नहीं जा रहा है। पूर्व अनादि से वासना के संस्कार-वश हुआ जीव जिन-लिंग प्राप्त करके भी एकत्व - विभक्त्व चिद्रूप भगवान्
कर्त्ता - पन कैसा?.....
88/