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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 5
भी स्व-देह प्रमाण ही है। जितना बड़ा शरीर, उतनी बड़ी आत्मा है। संसार में शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है। छोटा शरीर होगा, आत्मा भी उतनी ही होगी, बड़ा शरीर होगा, तब आत्मा भी बड़ी होगी, अन्यथा-रूप नहीं होगी; कहा भी है
जह पउम-राय-रयणं खित्तं खीरेपभासयदि खीरं। तह देही देहत्थो सदेह-मित्तं पभासयदि।।
-पंचास्तिकाय, गा. 33 अर्थात् जिसप्रकार पद्म-राग-रत्न दूध में डाला जाने पर दूध को प्रकाशित करता है, उसीप्रकार देही देह में रहता हुआ स्व-देह-प्रमाण प्रकाशित होता है। पद्म-राग-रत्न दूध में डाला जाने पर अपने से अभिन्न प्रभा-समूह द्वारा उस दूध में व्याप्त होता है, उसीप्रकार जीव अनादिकाल से कषाय द्वारा मलिनता के कारण प्राप्त शरीर में रहता हुआ स्व-प्रदेशों द्वारा उस शरीर में व्याप्त होता है और जिसप्रकार अग्नि के संयोग से उस दूध में उफान आने पर उस पद्म-राग-रत्न के प्रभा-समूह भी बैठ जाते हैं, उसीप्रकार विशिष्ट आहारादिक के वश उस शरीर में वृद्धि होने पर उस जीव के प्रदेश विस्तृत होते हैं, और-फिर शरीर सूख जाने पर प्रदेश भी संकुचित हो जाते हैं। पुनश्च जिसप्रकार वह पद्म-राग-रत्न दूसरे अधिक दूध में डाला जाने पर स्व-प्रभा-समूह के विस्तार द्वारा उस अधिक दूध में व्याप्त हो जाता है, उसीप्रकार जीव दूसरे बड़े शरीर में स्थित होने पर स्व-प्रदेशों के विस्तार द्वारा उस बड़े शरीर में व्याप्त होता है, और जिसप्रकार वह पद्म-राग-रत्न दूसरे कम दूध में डालने पर स्व-प्रभा-समूह के संकोच द्वारा उस थोड़े दूध में व्याप्त होता है, उसीप्रकार जीव अन्य छोटे शरीर में स्थिति को प्राप्त होने पर स्व-प्रदेशों के संकोच द्वारा उस छोटे शरीर में व्याप्त होता है, अतः आत्मा परमाणु-प्रमाण भी है, दीर्घ भी है। लोक-व्यापी भी ज्ञान-मात्र है, नय-सापेक्ष है, एकान्त से नहीं। यहाँ पर जैनागम में प्रसिद्ध निश्चय एवं व्यवहार उभय-नय लगाने की आवश्यकता है, आचार्यप्रवर नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ने आत्मा के स्व-देह-परिमाण के बारे में उभय-नय के माध्यम से बहुत ही सुन्दर कथन किया है
अणुगुरुदेहप्रमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा।।
-द्रव्यसंग्रह, गा. 10