SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैत्री भावना ७७ लेता है तो वह उसके रस से परिचित होकर अपने आप ही उसमें रमण करने लग जाता है। किमुत कुमतमदमूर्छिता, दुरितेषु पतन्ति। जिनवचनानि कथं हहा!, न रसादुपयन्ति॥७॥ मनुष्य कुमत के मद से मूर्च्छित होकर पापों में क्यों गिर रहे हैं? खेद है! वे रस (प्रीति) पूर्वक जिनवचनों को क्यों नहीं स्वीकार कर रहे हैं? परमात्मनि विमलात्मना, परिणम्य वसन्तु। विनय! समामृतपानतो, जनता विलसन्तु॥८॥ हे विनय! सभी लोग विमल अन्तःकरण से परमात्मा में लीन होकर निवास करें और वे समतारूपी अमृत के पान से प्रमोद का अनुभव करें।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy