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शान्तसुधारस
हे विनय! जो कर्मविचित्रता के कारण विविध गति को प्राप्त है, उस तीनों लोकों में विद्यमान जनता के साथ तू मित्रता का विचिन्तन कर ।
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सर्वे ते प्रियबान्धवा, नहि रिपुरिह कोऽपि । मा कुरु कलिकलुषं मनो, निजसुकृतविलोपि॥२॥
इस जगत् में वे सभी प्राणी तेरे प्रिय बन्धु हैं, कोई भी तेरा शत्रु नहीं है। तू अपने मन को कलह से कलुषित मत बना, जो अपने सुकृत का नाश करने वाला है।
निजकर्मवशेन ।
यदि कोपं कुरुते परो, अपि भवता किं भूयते, हृदि रोषवशेन | | ३ ||
यदि दूसरा व्यक्ति अपने कर्मों के परवश होकर तुम्हारे पर क्रोध करता है तो क्या तुम्हें भी हृदय से रोष की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए?
हे समतारस के मीन! इस जगत् में सज्जन पुरुषों के लिए कलह करना उचित नहीं है, इसलिए तू उसे छोड़ । हे गुणपरिचय से पुष्ट चेतन ! तू अपने हिताहित का विवेक करने के लिए कलहंसवृत्ति' को स्वीकार कर ।
समे,
अनुचितमिह कलहं सतां त्यज समरसमीन! । भज विवेककलहंसतां, गुणपरिचयपीन ! ॥४॥
शत्रुजनाः
सुखिनः
मत्सरमपहाय ।
सन्तु गन्तुमनसोऽप्यमी शिवसौख्यगृहाय ॥ ५ ॥
सभी शत्रुजन मत्सरभाव को छोड़कर सुखी हों और वे मोक्षसुख वाले गृह में जाने के इच्छुक बनें।
सकृदपि यदि समतालवं, हृदयेन लिहन्ति । विदितरसास्तत इह रतिं स्वत एव वहन्ति ॥ ६ ॥
यदि कोई एक बार भी हृदय से समतारस के कण का आस्वादन कर
१. कलहंस - एक प्रकार का हंस, जिसके पंख अत्यन्त धूसर रंग के होते हैं‘कादम्बास्तु कलहंसाः पक्षैः स्युरतिधूसरैः' (अभि. ४ / ३९३) । उसकी वृत्ति अर्थात् क्षीरनीर - विवेक ।