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अशरण भावना
'ये षट्खण्डमहीमहीनतरसा निर्जित्य बभ्राजिरे,
ये च स्वर्गभुजो भुजोर्जितमदा मेदुर्मुदा मेदुराः ।
तेऽपि क्रूरकृतान्तवक्त्ररदनैर्निर्दल्यमाना हठा
दत्राणाः शरणाय हा! दश दिशः प्रेक्षन्त' दीनाऽऽननाः ।।
जो चक्रवर्ती राजा अपने प्रबल पराक्रम से छह खण्ड भूमि पर विजय पाकर यशस्वी बने, प्रसन्नता से प्रमुदित जो देव अपने बाहुबल से गौरव पाकर हर्षोत्फुल्ल हुए, वे भी इस क्रूर यमराज के मुख की दाढ़ों से हठात् पीसे जाते हुए असहाय बन गए । खेद है कि उनके मुख पर दीनता टपक रही है और वे शरण पाने के लिए दशों दिशाओं में झांक रहे हैं।
२. तावदेव मदविभ्रममाली, तावदेव गुणगौरवशाली । यावदऽक्षम' कृतान्तकटाक्षैर्नेक्षितो विशरणो नरकीटः ।।
दूसरा प्रकाश
जब तक मरणधर्मा मनुष्य-कीट पर यमराज की असह्य कटाक्ष-दृष्टि नहीं पड़ती तब तक ही वह अहंकार से भ्रूविक्षेप करने वाला और तब तक ही गुणगौरव से मण्डित रहता है।
३. ' प्रतापैर्व्यापन्नं गलितमथ तेजोभिरुदितै
र्गतं धैर्योद्योगैः श्लथितमपि पुष्टेन वपुषा ।
प्रवृत्तं तद्द्द्रव्यग्रहणविषये बान्धवजनैः,
जने कीनाशेन प्रसभमुपनीते निजवशम् ॥
१. शार्दूलविक्रीडित । २. 'ईक्षङ् दर्शने' इति धातोः प्रथमपुरुषस्य बहुवचनान्तं दिबादिरूपम् । ३. स्वागता । ४. भौंहो के विकार को विभ्रम कहते हैं
'हावो मुखविकारः स्यात्, भावश्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ' ॥
५. अक्षम इति असहनीयः । ६. शिखरिणी ।