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शान्तसुधारस
–'हे पुरुष! जिसको तुम अपना मान रहे हो वे स्वजन तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो।' अन्तिम सचाई यही है कि शरण केवल यह चतुष्टयी है
अरहंते सरणं पवज्जामि। सिद्धे सरणं पवज्जामि। साहू सरणं पवज्जामि।
केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि। इस चतुष्टयी की शरण में जाने वाला व्यक्ति सब दःखों से विमुक्त हो जाता है और वहां जाने का फलित है
० निर्लेपता और जागरूकता का विकास। ० परमार्थ का अनुचिन्तन। ० सत्यनिष्ठा और धर्म का जीवनगत उपयोग। ० अपनी अर्हताओं का विकास।