________________
शान्तसुधारस
कवलयन्नविरतं जङ्गमाऽजङ्गमं,
जगदहो! नैव तृप्यति कृतान्तः। मुखगतान् खादतस्तस्य करतलगतै
न कथमुपलप्स्यतेऽस्माभिरन्तः?॥८॥ आश्चर्य है! यमराज चर-अचर (त्रस-स्थावर) जगत् को निरन्तर कवलित करता हुआ कभी तृप्त होता ही नहीं। वह मुख में आए हुए प्राणियों को खाता चला जा रहा है और हम उसके हाथ में आए हुए हैं, फिर हमारा अन्त कैसे नहीं होगा?
नित्यमेकं चिदानन्दमयमात्मनो,
__रूपमभिरूप्य सुखमनुभवेयम्। प्रशमरसनवसुधापानविनयोत्सवो,
भवतु सततं सतामिह भवेऽयम्॥९॥ मैं आत्मा के शाश्वत, अखण्ड तथा चिदानन्दमय स्वरूप का साक्षात्कार कर सुख का अनुभव करूं। इस संसार में शान्तरसरूपी अभिनव अमृतपान से होने वाला यह विनयोत्सव साधु-पुरुषों को निरन्तर उपलब्ध होता रहे।