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अनित्य भावना
जो शरीर खली बन चुका है, संसार में दुर्जेय बुढ़ापे ने जिसका सार चूस डाला है, फिर भी प्राणियों का वह निर्लज्ज और विपरीत चिंतनवाला मन कुत्सित कामवासना को नहीं छोड़ता। सुखमनुत्तरसुराऽवधि यदतिमेदरं,
कालतस्तदपि कलयति विरामम्। कतरदितरत्तदा वस्तु सांसारिकं,
स्थिरतरं भवति चिन्तय निकामम्॥५॥ अल्पतम सुख की बात ही क्या, अनुत्तर-विमान के देवों के उत्कृष्ट सुख भी कालावधि से समाप्त हो जाते हैं। तब संसार की दूसरी कौन-सी वस्तु है, जो स्थिर रह सके, उसका तू यथेष्ट अनुचिन्तन कर। यैः समं क्रीडिता ये च भृशमीडिताः,
यैः सहाऽकृष्महि प्रीतिवादम्। तान् जनान् वीक्ष्य बत! भस्मभूयं गतान्,
निर्विशंकाः स्म इति धिक् प्रमादम्॥६॥ जिन व्यक्तियों के साथ हमने क्रीड़ाएं की, जिनकी अत्यधिक स्तवनाएं की और जिनके साथ प्रेमपूर्ण आलाप किया, उन्हीं लोगों को भस्मीभूत हुए देखकर हम निःशंक हैं, यह महान् आश्चर्य है। इस प्रमाद (विस्मृति) को धिक्कार है। असकृदुन्मिष्य निमिषन्ति सिन्धू
मिवच्चेतनाऽचेतनाः सर्वभावाः। इन्द्रजालोपमाः स्वजनधनसङ्गमा
स्तेषु रज्यन्ति मूढस्वभावाः॥७॥ जड़ और चेतन सभी पदार्थ समुद्र की लहरों की भांति बार-बार उत्पन्न होते हैं और विलीन हो जाते हैं। स्वजन और धन का संयोग इन्द्रजाल जैसा है। मूढप्रकृति वाले लोग उनमें अनुरक्त हो जाते हैं। १. 'हत्याभूयं भावे'-(भिक्षु० ५/१/३७) इस सूत्र से भस्मशब्द के साथ भू धातु से भाव में क्यप् प्रत्यय का निपात हुआ है। २. 'प्रमादोऽनवधानता' (अभि. ६/१८)।