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शान्तसुधारस
वाला यह पावन पर्व। महाराजा उद्रायण इसे कैसे नहीं मनाता? मनाना आवश्यक था, किन्तु आज वह यात्रा के कारण विवश भी था। धर्म-आराधना का जो अनूठा आनन्द उसे घर पर या किसी के सान्निध्य में उपलब्ध होना था, वह आनन्द कुछ फीका जरूर लग रहा था। उसने अपने सुभटों को निर्देश दिया कि वह आज का दिन धर्म की उपासना में बिताएगा, उपवास रखेगा। अतः आज अग्रिम मंजिल के लिए यात्रा नहीं होगी। पड़ाव यहीं रहेगा। अन्य कोई भी, जिसे भगवान् महावीर में श्रद्धा है, धर्म का आचरण कर सकता है और वह भी उसमें सहभागी बन सकता है।
महाराज उद्रायण ने संवत्सरी का सारा दिन धर्म-जागरण में व्यतीत किया, पौषधोपवास से अपने आपको भावित किया। वर्षभर की भूलों की
आलोचना करते हुए चौरासी लाख जीवयोनि से क्षमायाचना की। आज के दिन महाराजा उद्रायण इस धर्मस्रोतस्विनी में अभिस्नात होकर अपने अन्तःकरण को विशुद्ध और निर्मल बना रहा था। उसका रोम-रोम मैत्री से आप्लावित था। न किसी के प्रति वैर और न किसी के प्रति कोई प्रतिशोध। सर्वत्र मैत्री-ही-मैत्री टपक रही थी। सुबह होते ही उसने अपने समस्त सुभटों और कर्मचारियों से क्षमायाचना की और फिर वह वहां पहुंचा जहां चण्डप्रद्योत बन्दी बना हुआ था। महाराजा उद्रायण ने करबद्ध होकर विनम्रतापूर्वक चण्डप्रद्योत से क्षमायाचना की। क्षमायाचना की इस विधि को देखकर चण्डप्रद्योत ने कहा-'राजन्! क्षमा करना
और बंदी बनाए रखना ये दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं? आप बन्दी से क्षमा पाने की आशा कैसे रख सकते हैं? भगवान् महावीर ने मैत्री के मुक्तक्षेत्र का निरूपण किया है। उसमें न बन्दी बनने का अवकाश है और न बन्दी बनाने का। यदि आप अन्तःकरण से क्षमायाचना की सम्यक् विधि का पालन करना चाहते हैं तो हम दोनों को समान धरातल पर आना होगा। आप राजा के बड़प्पन से बड़े बने रहें, और मैं बन्दी बना हुआ छुटपन का अनुभव करता रहं, यह कभी नहीं हो सकता, आप एकपक्षीय क्षमायाचना चाह रहे हैं। मेरे साथ वैसा व्यवहार करें, जैसा कि आप चाहते हैं कि दूसरा आपके साथ करे। तभी इस मैत्रीमय सांवत्सरिक पर्व को मनाने की सार्थकता होगी।'
महाराजा उद्रायण ने यह सब कुछ सुना। एक ओर अपना शत्रु, जिसे कितने प्रयत्नों के बाद बंदी बनाया था, कितने व्यक्तियों का खून बहाया था तो दूसरी ओर संवत्सरी का वह महान् पर्व। क्षमा लेने और क्षमा देने का महान् अवसर। तत्काल उद्रायण को अपने प्रमाद का अनुभव हुआ। उसने इस महान्