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मैत्री का आयाम महारानी ने अपने चातुर्यबल से काम लिया। कौशाम्बी की सुरक्षा-व्यवस्था सुदृढ़ कर ली। वत्सदेश की जनता अपने देश और महारानी की सुरक्षा के लिए कटिबद्ध हो गई। चण्डप्रद्योत की विशाल सेना ने नगरी को घेर लिया। चारों ओर युद्ध का आतंक छा गया।
मृगावती को भगवान् महावीर की स्मृति हुई। उसे अंधकार में प्रकाश और समस्या में समाधान उपलब्ध हो गया। भगवान् महावीर कौशाम्बी में समवसृत हुए। भगवान् के आगमन का संवाद पाकर कौशाम्बी के बन्द द्वार खुल गए। भय का वातावरण अभय में बदल गया। मृगावती और चण्डप्रद्योत दोनों ही भगवान् के दर्शनार्थ समवसरण में आए। भगवान् ने अहिंसा की चर्चा की। मध्यस्थभाव से दोनों ने भगवान् की देशना सुनी। चण्डप्रद्योत का आक्रोश शान्त हुआ और उसका अन्तःकरण मैत्री से ओत-प्रोत हुआ। अवसर देखकर मृगावती ने भगवान् को निवेदन करते हुए कहा-भंते! मैं आपकी वाणी से प्रभावित हूं। यदि महाराज चण्डप्रद्योत मुझे स्वीकृति दें और वत्सदेश के राजकुमार उदयन की सुरक्षा का दायित्व अपने पर लें तो मैं आपके चरणों में दीक्षित होना चाहती हूं। चण्डप्रद्योत ने इसे स्वीकार कर लिया। मृगावती का शील सुरक्षित रह गया और पुनः उज्जयिनी और वत्स दोनों देश मैत्री के सूत्र में बंध गए।
आज चण्डप्रद्योत महाराजा उद्रायण की रूपसी दासी के अपहरण के आरोप में बन्दी बना हुआ था। महाराजा उद्रायण के यहां कुब्जा नाम की दासी रहती थी। उसके पास दो गुटिकाएं थीं, जिनकी भिन्न-भिन्न विशेषताएं थीं। एक गुटिका का आसेवन करने पर स्वर्णरूप की प्राप्ति होती थी तो दूसरी गुटिका के प्रयोग से इच्छित पुरुष को अपने पास बुलाया जा सकता था। ये दोनों गुटिकाएं परिचर्या स्वरूप उसे गान्धार देश के गृहपति के द्वारा उपहार में मिली थीं। दासी ने उन दोनों का प्रयोग किया। परिणामस्वरूप उसका रूप सोने जैसा सुन्दर हो गया और उसके द्वारा वाञ्छित वह कामुक चण्डप्रद्योत उसके पास आया और उसका अपहरण कर उसे उज्जयिनी ले गया। महाधिपति उद्रायण ने इसे अपना अपमान समझा। आक्रमण-प्रत्याक्रमण हुआ। चण्डप्रद्योत पराजित होकर उद्रायण के हाथों बन्दी बन गया।
लम्बा मार्ग और लम्बी यात्रा। महाराजा उद्रायण मार्ग में पड़ाव करतेकरते अपने देश आ रहा था। समय काफी बीत चुका था। उद्रायण ने दसपुर में पड़ाव किया। उस दिन सांवत्सरिक पर्व आ गया। भगवान् महावीर का परमोपासक। निर्ग्रन्थ प्रवचन में अटूट आस्था। वर्षभर में एक दिन मनाया जाने