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शान्तसुधारस गए। उनकी दृष्टि तत्रस्थित एक मुनि को देखकर सहम गई। वे कुछ कहना चाहते थे, किन्तु मुनि की ध्यानमुद्रा और रूप-लावण्य-संपन्नता बरबस उनको अपनी ओर खींच रही थी। उनके आभामण्डल से विकीर्ण होने वाले परमाणु राजा के अन्तःकरण को शान्ति और मैत्री से आप्लावित कर रहे थे। मुनि का स्मित-आनन, साधना से प्रभास्वर चेहरा, सहजता, सरलता, न कोई भय और न कोई प्रकम्पन ये सब भूपति के नेत्रों को सहज तृप्ति और आत्मतोष दे रहे थे। बार-बार देखने पर भी उनके नेत्र अतृप्ति का अनुभव कर रहे थे। अब तक जो ध्यान उद्यान की सुषमा, प्राकृतिक सौन्दर्य पर टिका हुआ था, वही अब मुनि को देखने में निमग्न हो गया। राजा के विस्फारित नेत्र मुनि के सौन्दर्य का पान कर रहे थे। रह-रह कर उनके मन में अनेक जिज्ञासाएं उभर रही थीं। वे मन-ही-मन सोच रहे थे-अहो! इन्होंने मुनित्व क्यों और किसलिए स्वीकार किया है? किसने इनको मुनि बनने के लिए प्रेरित किया होगा? लगता है ये किसी के द्वारा ठगे गए हैं, अन्यथा इस सुकुमार अवस्था में ये संयमपथ को स्वीकार नहीं करते। विचित्र है इनकी निर्भयता! कितनी है इनकी एकाग्रता! कितना दुष्कर है इनका तप!
सम्राट का मन नाना विकल्पों में उलझा हुआ था। वे महामुनि से समाधान पाने को आतुर थे। वे उस क्षण की प्रतीक्षा में थे कि मुनि कब अपना ध्यान पूरा करें और कब वे अपनी जिज्ञासा समाहित करें?
महामुनि का ध्यान परिसंपन्न हुआ। उन्होंने आंखें खोलीं। उनकी अन्तर्मुखी चेतना अन्तर्जगत् से बहिर्जगत् में लौटी। सत्य की गहराइयों में डुबकियां लेने वाले मुनि अब व्यवहार के धरातल पर खड़े थे। महामुनि के कमललोचन राजा के वदन की ओर झांक रहे थे और सम्राट् का मस्तक महामुनि के चरणों में प्रणत था। वे उन महामनस्वी का साक्षात्कार कर अपने आपको धन्य और कृतपुण्य का अनुभव कर रहे थे। उनकी जिज्ञासा मुखर हो उठी-विभो! मैं नहीं समझ सका कि यौवन की दहलीज पर पादन्यास करने वाले आपने संयमपथ का अंगीकरण किसलिए किया? भोगों की प्रचुरता उपलब्ध होने पर भी संन्यास का ग्रहण क्यों? अनुरक्ति से विरक्ति का स्वीकरण कैसे?
महामुनि-राजन्! सब कुछ उपलब्ध होने पर भी मैं अनाथ था, न कोई मेरा रक्षक था और न कोई पालक। मैंने बहुत खोजा, किन्तु कोई भी मेरा नाथ नहीं बन सका, इसलिए विवश होकर मुझे मुनित्व स्वीकार करना पड़ा।
महाराज श्रेणिक कुछ चौंके और बोले यदि ऐसी बात है तो छोड़ो इस