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प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत गेयकाव्य की परम्परा में एक महत्त्वपूर्ण कृति है । प्रांजल भाषा, सशक्त अभिव्यक्ति, भाव की गम्भीरता और प्रसन्न शैली - ये सब विशेषताएं प्राप्त हैं। शान्तरस से परिपूर्ण इस रचना में प्रेरकशक्ति का प्रवाह है। उपाध्याय विनयविजयजी ने कुछ पद्य तो बहुत ही मार्मिक लिखे हैं। वे वर्तमान समस्या पर बड़े सटीक बैठते हैं।
बौद्धिक विकास और भावनात्मक विकास का सन्तुलन प्रेक्षाध्यान का सूत्र है। यह वर्तमान समस्या का समाधान है। उपाध्यायजी ने लिखा हैस्फुरति चेतसि भावनया विना, न विदुषामपि शान्तसुधारसः । न च सुखं कृशमप्यमुना विना, जगति मोहविषादविषाकुले।। भावना के बिना विद्वान् के चित्त में शान्ति नहीं होती और उसके बिना सुख नहीं होता।
प्राथमिक समस्याओं का भी सजीव चित्रण प्रस्तुत किया हैप्रथममशनपानप्राप्तिवाञ्छाविहस्ता
स्तदनु वसनवेश्मालङ्कृतिव्यग्रचित्ताः ।
परिणयनमपत्याऽवाप्तिमिष्टेन्द्रियाऽर्थान्,
सततमभिलषन्तः स्वस्थतां क्वाऽश्नुवीरन् ? ॥
पहली समस्या रोटी और पानी की, फिर कपड़े की, मकान की, गहनों की, विवाह की, संतति की, इन्द्रियतृप्ति की । इनकी पूर्ति के प्रयत्न में मनुष्य स्वस्थ कैसे हो सकता है ?
प्रस्तुत ग्रन्थ का अनुवाद मुनि राजेन्द्रकुमार ने किया है। उनमें अध्ययन की रुचि और कुछ नया करने का उत्साह है, लगन और श्रमनिष्ठा है। यह अनुवाद मूलस्पर्शी और भावस्पर्शी - दोनों है। आज तक के अनुवादों में यह सर्वाधिक प्रामाणिक हुआ है। हमारे धर्मसंघ में इस अनुप्रेक्षा ग्रन्थ के स्वाध्याय का बहुत प्रचलन है। इससे अनेक स्वाध्यायी लाभान्वित होंगे।
जोधपुर
१ अक्टूबर, १९८४
युवाचार्य महाप्रज्ञ (आचार्य महाप्रज्ञ)