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लाइबनीज के चिदणु निरपेक्ष तथा स्वतंत्र होकर भी एक दूसरे के सहयोगी हैं। इस आधार पर ही संसार में व्यवस्था है। एक नियम है। नियम, व्यवस्था, एकता और सामंजस्य का मूल कारण ईश्वर है। ईश्वर द्वारा निर्मित सामंजस्य सृष्टि से पूर्व का है।
लाइबनीज के पूर्व स्थापित सामंजस्य सिद्धांत में भी कई विसंगतियां हैं। उसके मत से यदि चिदणु गवाक्षहीन, रन्ध्रहीन हैं, एक-दूसरे से अप्रभावित हैं तो फिर इनमें पूर्व स्थापित सामंजस्य क्यों? यदि पूर्व स्थापित सामंजस्य है तो एक-दूसरे से अप्रभावित कैसे?
___ यदि चिदणु अनादि, अनन्त और नित्य हैं तो आत्म चिदणु और शरीर चिदणु भी ऐसे ही होने चाहिएं फिर ईश्वर द्वारा निर्मित पूर्व स्थापित सामंजस्य कैसे उचित होगा?
शरीरात्मवाद की समस्या दार्शनिक जगत् की बड़ी समस्या है। देकार्त, ग्यूलिंक्स, मेलेब्रान्स, स्पिनोजा, लाइबनीज आदि पाश्चात्य दार्शनिकों ने अपने-अपने तरीके से समाहित करने का प्रयास किया किन्तु निर्विवाद और न्यायसंगत समाधान नहीं दे सके।
जैन दर्शन द्वैतवाद का पक्षधर है। इसके अनुसार जड़-चेतन दोनों विश्व व्यवस्था के नियामक तत्त्व हैं। दोनों स्वतंत्र हैं। चेतन-अचेतन का परस्पर अत्यन्ताभाव है। फिर भी आपस में सम्बन्ध है। भगवती सूत्र में सम्बन्ध सेतुओं का निरूपण उपलब्ध होता है। "अत्थि णं जीवा य पोग्गला य अण्णमण्ण बद्धा, अण्णमण्ण पुट्ठा, अण्णमण्ण-मोगाढा, अण्णमण्ण सिणेह पडिबद्धा, अण्णमण्ण घडत्ताए चिट्ठइ।' जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध हैं, स्पृष्ट हैं, अवगाहित हैं, स्नेह से प्रतिबद्ध हैं। जीव में धन शक्ति, पुद्गल में ऋण शक्ति है, अतः परस्पर मिल जाते हैं।
जीव स्वरूप से अमूर्त है किन्तु बद्धावस्था की अपेक्षा से मूर्त भी है। यही कारण है सम्बन्ध होने का। जीवन का सेन्ट्रिफ्युगल, पुद्गल का सेन्ट्रि पिटल आकर्षण है। जीव-पुद्गल दोनों में भोग्य-भोक्तृ भाव है। जीव भोक्ता है, पुद्गल भोग्य।
जीव और शरीर का परस्पर भेदाभेद है। सर्वथा अभेद मानने से दोनों एक रूप होंगे। भेद मानें तो परस्पर कभी मिल नहीं सकते अतः अपने विशेष गुणों के कारण भेद, सामान्य गुणों से अभेद भी है।
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- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन