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भगवान महावीर ने आत्मा को शरीर से भिन्नाभिन्न कहा है। यह सापेक्ष दृष्टि है। भगवती में गौतम ने महावीर से इस संदर्भ में प्रश्न उठाया है-'आया भंते ! काये? अण्णे काये? गोयमा ! आया वि काये, अण्णे वि काये ?'
शरीर और आत्मा में कोरा भेद या कोरा अभेद-ये दो विरोधी दिशाएं हैं। दोनों में समन्वय स्थापित करने के लिये ही महावीर ने भेदाभेद का निरूपण किया है। शरीर नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है।
आत्मा और शरीर एक दृष्टि से भिन्न हैं। संसार अवस्था में अग्नि-लोह पिण्डवत्, क्षीर-नीरवत् दोनों में तादात्म्य सम्बन्ध है। इसलिये शरीर से सम्बन्धित सारा संवेदन आत्मा में होता है। व्यवहार जगत में भी मानसिक क्रिया का असर शरीर पर देखा जाता है। क्रोध आदि से रक्त दूषित हो जाता है। निराशा से पाचन शक्ति मंद हो जाती है। ईर्ष्या से अल्सर होता है। मेडिकल साइंस यह स्पष्ट प्रस्तुति देता है।
प्रश्न यह उभर कर सामने आ जाता है कि आत्मा और शरीर विजातीय तत्त्व हैं। जड़ और चेतन का स्वभाव भिन्न है। ऐसी स्थिति में दोनों में अंतः क्रिया कैसे होती है? यह प्रश्न वहां उठता है जहां जीव को सर्वथा अमूर्त माना जाता है। जैन दर्शन की दृष्टि में हर संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त है। इसलिये मूर्त के द्वारा मूर्त के आकर्षण में कहीं कोई कठिनाई नहीं आती है।
आत्मा और देह का सम्बन्ध समझने के लिये टेलीविजन सेट और हाई फ्रिक्वेन्सी विद्युत चुम्बकीय तरंग का उदाहरण पर्याप्त होगा। टेलीविजन सेट के परदे पर प्रतिबिम्बित सजीव आकृतियों की हलन-चलन तथा उसमें से प्रसारित ध्वनि का मूल क्या है ?
इसका रिसर्च करने के लिये पूरे सेट को खोल कर गहराई से निरीक्षण किया जाये तो विविध ट्यूबें, ट्रांसफॉर्मर आदि अवयव मिलते हैं। वे चित्रों और ध्वनि को अभिव्यक्ति देने में सहायक जरूर होते हैं किन्तु दोनों का मूल कुछ
और है, जिसका कार्य हमें दिखाई पड़ रहा है। किन्तु स्वयं अदृश्य हैं। वे हैं टेलीविजन की हाईफ्रिक्वेन्सी तरंगें। उनके अभाव में नया सेट भी क्यों न हो, न चित्र उठेगा, न ध्वनि का प्रसारण भी। ___इन्द्रियों से उन तरंगों को देख नहीं सकते किन्तु टेलीविजन सेट में प्रविष्ट होकर अभिव्यक्त होती हैं। आत्मा, इसी प्रकार इन्द्रियों का विषय नहीं, शरीर रूपी सेट में प्रविष्ट होती है, तब उसके कार्य द्वारा अस्तित्व की सिद्धि पाश्चात्य एवं जैन दर्शन का प्रस्थान : समन्वय की भूमिका -
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