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मैक्डॉनल, शोपेनहावर, लेसिंग, हर्डर आदि पश्चिम के चिन्तकों ने आत्मा की मौलिकता एवं अविनाशिता को स्वीकार किया है।
नोबल पुरस्कार विजेता प्रो.ई.पी. विगनर ने कहा-"आधुनिकी भौतिकों के समीकरणों से चेतना की संरचना, स्थिति एवं उतार-चढ़ावों की व्याख्या नहीं हो सकती।" ___ए.एस. एडिंग्सन का मत है-"संपूर्ण सृष्टि में एक असाधारण शक्ति काम कर रही है किन्तु हम नहीं जानते क्या कर रही है। वह युग आयेगा जब विज्ञान, अज्ञात, अज्ञेय के बंद द्वार खोलने में समर्थ होगा। मैं मानता हूं, चेतना ही प्रमुख आधारभूत वस्तु है।"
स्पिनोजा के अनुसार “चेतना एक है परन्तु चेतना के असंख्य रूप हैं और प्रत्येक रूप आत्मा है।"
जे.वी.एस. हाल्डेन के शब्दों में-"जगत का मौलिक जड़ (Matter), बल (Fource) अथवा भौतिक पदार्थ न होकर मन या चेतना ही है ?"
शरीर विज्ञाता सर चार्ल्स शैरिंग्टन ने लिखा-"चेतना की परीक्षा हम ऊर्जा मापक यंत्रों से नहीं कर सकते। उसके परीक्षण के लिये भौतिकी के नियम, उपकरण निरर्थक ही सिद्ध होंगे ?'८
आत्मा के संदर्भ में प्राच्य दार्शनिकों की तरह पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी हेतुओं-युक्तियों द्वारा समर्थन किया है। जड़ से भिन्न चेतना की सत्ता है। देहात्मवाद की समस्या
शरीर और आत्मा एक हैं या दो? दार्शनिकों के समक्ष देहात्म की समस्या प्रमुख समस्या है। जीव चेतन है। शरीर अचेतन। दोनों स्वतंत्र द्रव्य और विरोधी स्वभाव हैं। प्रश्न उठता है, विसदृश का परस्पर सम्बन्ध कैसे हुआ ? सम्बन्ध का सेतु क्या है ? शरीर एवं आत्मा सापेक्ष है या निरपेक्ष ? सहचारी हैं या विरोधी ? सहचारी हैं तो कब से? विरोधी हैं तो मिलकर क्रिया कैसे करते हैं?
इन प्रश्नों पर गंभीर चिन्तन-मन्थन हुआ। डेकार्ट, मेलेब्रान्स, स्पिनोजा, ग्यूलिंक्स, लाइबनीज आदि ने अपने-अपने ढंग से समाहित करने का प्रयत्न किया है।
द्वैतवादियों को इनका समाधान देना आवश्यक हो गया। गौतम बुद्ध से पूछा गया-आत्मा और शरीर में भेद है या अभेद ? उन्होंने भेद-अभेद दोनों को स्वीकार न करके केवल मध्यम मार्ग को ही श्रेष्ठ बतलाया।
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- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन