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विश्लेषण है। काण्ट ने सूक्ष्म विवेचना की कोशिश अवश्य की है किन्तु उसका अमूर्त एकता और अज्ञेय सत् आलोचना का विषय बना हुआ है।
काट ने जिस अमूर्त एकता के रूप में आत्मा के अस्तित्व को मान्य किया है, वह अनेकता के बिना व्यर्थ है । एक तरफ वह आत्मा को बुद्धि से परे का तत्त्व मानता है, दूसरी ओर आत्मा के विषय में सोचना, विचारना आदि बुद्धि का व्यायाम भी करता है। दोनों के बीच स्पष्ट विरोधाभास है।
वह आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है और उसे अज्ञेय भी कहता है। यह कहां तक उचित है ? जेम्सवार्ड के मत से काण्ट की अमूर्त आत्मा किसी अक्षर पर एक बिन्दु के समान है जिसका अक्षर से अलग कोई अर्थ नहीं है। काण्ट का आत्म विषयक प्रत्यय (The theory of nominal self) कहलाया है।
बर्कले (1685 ई. से 1753 ई.)
पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में बर्कले का एक स्थान है। देकार्त के समान र्क भी आत्मा को सिद्ध करते हैं। आत्मा ज्ञाता है। ज्ञान का अधिष्ठान है। विज्ञान या प्रत्यय इसका विषय है। बर्कले ने ज्ञाता को ही मन (Mind), आत्मा (Soul) तथा अहं (Mind Self) आदि संज्ञाओं से अभिहित किया है।
बर्कले ने आत्मा को जानने के लिये स्वानुभूति को प्रमाण माना है। आत्मा न मानें तो विधि या निषेध - किसी भी प्रकार उस संदर्भ में चर्चा निरर्थक होगी। कुछ बिन्दुओं द्वारा अस्तित्व को पुष्ट किया है—
१. आत्मा विज्ञान से भिन्न है। विज्ञान ज्ञेय है। आत्मा ज्ञाता है।
२. आत्मा स्वानुभूति गम्य है ।
३. आत्मा सक्रिय है । स्वसंवेदनाओं की सृष्टि आत्मा का कार्य है।
४. आत्मा, सभी मानसिक क्रियाओं का आधार है।
५. अन्य आत्माओं का ज्ञान बुद्धि से हो जाता है किन्तु अपनी आत्मा क अस्तित्व बोध सद्यः अनुभूति से संभव है ।
बर्कले ने जैन दर्शन की तरह आत्मा को ज्ञाता, अनुभूतिगम्य, सक्रिय माना है। बर्कले ने विश्व की समग्र सत्ता को तीन भागों में विभक्त किया है— आत्मा, परमात्मा और पदार्थ। यह सत्ता का वर्गीकरण आत्म-अस्तित्व की स्वीकृतिमूलक अवधारणा है।
पाश्चात्य एवं जैन दर्शन का प्रस्थान समन्वय की भूमिका
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