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प्राक्कथन
विश्व का वैविध्य प्रत्यक्ष है। वैविध्य क्यों है ? इसका समाधायक तत्त्व प्रत्यक्ष नहीं है। जो प्रत्यक्ष नहीं होता, उस सम्बन्ध में जिज्ञासा हो, अस्वाभाविक नहीं । विश्व क्या है? कैसे बना? किससे बना ? विश्व के निर्माण
मूल तत्त्व क्या है ? व्यक्ति क्या है ? क्या जन्म-मरण तक चलनेवाला भौतिक पिण्ड मात्र ही है या मृत्यु के बाद भी उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्त्व है ? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका समाधान अनिवार्य है।
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मूल तत्त्व के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है । थेलीज (Thales) के अभिमत से जल मूल तत्त्व है। एक्जीमेनीज ने वायु, हेराक्लाइट्स ने अग्नि, पाइथागोरस तथा उनके अनुयायियों ने जगत की उत्पत्ति में जल और वायु को महत्त्व न देकर संख्या को मूल स्रोत माना है।
महावीर ने कहा- जीव (Soul) और अजीव (Matter) की सांयोगिक अवस्था सृष्टि की जनक है। सृष्टि का सारा विस्तार इन दो का यौगिक विस्तार है। जब से चेतन-अचेतन का अस्तित्त्व है, सृष्टि का इतिहास उतना ही पुराना है।
जब भी युग करवट लेता है, संगति-विसंगति का उलट-फेर होता है। वह विचारों, धारणाओं एवं व्यवहार में प्रत्यक्ष है। विश्व की मूल सत्ता का स्वभाव, उत्पत्ति का कारण, सृष्टि के कर्तृत्व की समस्या, आत्मा की अमरता एवं शुभाशुभ कर्मों का विपाक आदि विमर्शनीय पहलुओं पर चिन्तकों ने अपनी मेधा - यात्रा की है।
प्राचीन ग्रीक दार्शनिकों ने जगत को पक्ष-विपक्ष के विरोधों के समुच्चय रूप में देखा है। जगत के इस प्रवाह में उन्हें आत्म-तोष की अनुभूति नहीं हुई । उन्होंने अनुभव किया—इन प्रवाहों, परिणामों की पृष्ठभूमि में एक शाश्वत सत्य (Eternal or Immortal) का होना अनिवार्य है और वह नित्य, अपरिणामी, शाश्वत सत्य कालातीत (Ageless) और अमर्त्य (Deathless) है।
जड़ जगत के विचार विमर्श में किसी निश्चित बिन्दु पर नहीं पहुंचने के कारण ग्रीक मस्तिष्क आत्म-विश्लेषण की ओर उन्मुख हुआ । अन्ततः जगत और आत्मा को सापेक्ष मानकर दोनों का समाहार तत्त्व में किया । वस्तु-निष्ठा,
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