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बौद्ध दर्शन में आत्मा क्षणिक, चेतना का प्रवाह मात्र है। जैन दर्शन में आत्मा नित्यानित्य है। न्याय-वैशेषिकों ने चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण तथा सुषुप्ति और मोक्षावस्था में जड़ रूप माना है। जैन दर्शन आत्मा का यथार्थ गुण चैतन्य स्वीकार करता है। यद्यपि जैन और न्याय-वैशेषिक दोनों में आत्मा नित्य रूप है। किन्तु न्याय-वैशेषिक कूटस्थ नित्य मानते हैं, जैन परिणामी नित्य।
न्याय-वैशेषिकों ने आत्मा को व्यापक तथा गुणों को आत्मा से भिन्न माना है। जैन दर्शन आत्मा को देह परिमाण एवं गुणों को भिन्न नहीं, सहकारी कहा है। दोनों दर्शन में आत्मा अनेक, कर्ता-भोक्ता है। पुनर्जन्म के सम्बन्ध में चिन्तन भेद है। न्याय-वैशेषिक अणुरूप प्रत्येक शरीर में मन भिन्न है। यही मन एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है। आत्मा का यही पुनर्जन्म है।
जैन दर्शन में आत्मा पूर्व शरीर का त्याग कर नये शरीर को पाती है। पर्याय परिवर्तन ही पुनर्जन्म है।
सांख्य दर्शन, न्याय-वैशेषिकों की तरह चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण नहीं मानता। इस संदर्भ में जैन दर्शन की तरह वास्तविक गुण स्वीकार करता है। आत्मा को अनादि भी मानता है। कूटस्थ नित्य की धारणा में जैन दर्शन से अलग, न्याय-वैशेषिकों के निकट है।
पुनर्जन्म के संदर्भ में सांख्य को पुरुष का पुनर्जन्म स्वीकार्य नहीं, पुरुष निर्लिप्त है, उसके बंध-मोक्ष भी नहीं। प्रकृति के बंध होता है और लिंग शरीर का पुनर्जन्म है। जैनों में आत्मा का पुनर्जन्म है और बन्धन-मुक्ति का अधिकारी भी वही है।
मीमांसकों में प्रभाकर का मन्तव्य न्याय-वैशेषिकों से मिलता-जुलता है। कुमारिल भट्ट सांख्य और जैनों से साम्य रखता है। वेदान्त में जीव और आत्मा भिन्न हैं, जैन दर्शन में अभिन्न। रामानुज ने जीवात्मा के तीन प्रकार निरूपित किये हैं- बद्ध जीव, मुक्त जीव और नित्य जीव। किन्तु जैन दर्शन में मुक्त और संसारी-ऐसे दो ही भेद किये हैं।
संदर्भ सूची
१. आचारांग, अ. ३ उ. ३ सू. ५८ २. आचा., अ. ५ उ. ६ सू. १२३-१२४-१२५ ३. वही, अ. ५ उ. ५ सू. १०५
आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा -