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परमात्मा- जहां समस्त कर्मों से मुक्त, स्व-स्वरूप की उपस्थिति होती है।
जीव की जितनी पर्यायें बदलती हैं, जितनी रूपान्तरित अवस्थाएं एवं परिणतियां है, उतनी ही आत्माएं हैं। वे उस अवस्था की बोधक हैं। सभी का एक साथ प्रतिपादन असंभव है अतः चिंतन की सहजता के लिये उनका वर्गीकरण आठ रूपों में किया है
द्रव्य आत्मा ४–चैतन्यमय असंख्य प्रदेशों का पिण्ड। चेतनाकाल के सभी खण्डों में दीप्त रहती है। न उदित होती है, न अस्त। ऐसी शुद्ध चैतन्यमय आत्मा को द्रव्यात्मा कहते हैं। कषाय आत्मा - क्रोध, मान आदि कषायों से रंजित अवस्था।
योग आत्मा - मन, वचन, काया की योगमय रूपान्तरित अवस्था। उपयोग आत्मा - चेतना का उपयोगमय क्रियात्मक पक्ष।
ज्ञान आत्मा - जीव की ज्ञानमय अवस्था या परिणति। दर्शन आत्मा - मूलभूत सत्ता के प्रति जीव का यथार्थ-अयथार्थ
दृष्टिकोण। चारित्रात्मा - कर्म निरोध की भूमिका में जीव की सक्रिय भूमिका। वीर्यात्मा - जीव का सामर्थ्य-विशेष वीर्य आत्मा है।
इन अवस्थाओं में द्रव्य आत्मा मूलभूत है, शेष जीव की पर्यायें हैं। अध्यात्म तत्त्वालोक' में जीव की अन्य अवस्थाएं भी बतलाई हैं, यथाबहिरात्मा, भद्रात्मा, सदात्मा, महात्मा, योगात्मा, परमात्मा आदि।
अनेकात्मवाद की तुलना जर्मन के दार्शनिक लाइबनीत्ज के चिदणु से की जा सकती है। लाइबनीज के अनुसार चिदणु अनेक हैं जिनमें चैतन्य का स्वतंत्र विकास हो रहा है। दोनों में काफी साम्य है।०६
जैन दर्शन में संसारी और सिद्ध, मूल इन दो अवस्थाओं की प्रमुखता है। संसारी अवस्था जीव की बद्ध अवस्था है। संसार का एक नाम परावर्तन है। परावर्तन पांच हैं-द्रव्य परावर्तन, क्षेत्र परावर्तन, काल परावर्तन, भव परावर्तन, भाव परावर्तन। इन पांचों परावर्तनों में यात्रायित जीव की संसारी अवस्था है। परिवर्तनों से मुक्त जीव सिद्ध कहलाता है। सिद्धों की अवस्था अक्षय, अचल, अव्यावाध है। ऊपर हम जैन दर्शन और अन्य दर्शनों में अनेक
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-जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन