________________
की अपेक्षा अनेक भेदों की व्यवस्था है। जैन दर्शन में जीवों का जैसा व्यवस्थित वर्गीकरण है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। भेद-प्रभेदों का विवेचन अत्यन्त सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक है। वर्गीकरण के पीछे उद्देश्य है- आत्म स्वरूप की अवगति देकर मोक्ष मार्ग की ओर अभिमुख करना।
आत्मा अनेक है-इसके परिपोषक तीन प्रमाण हैं१. इन्द्रियों की भिन्नता। २. प्रवृत्तियों की भिन्नता। ३. शरीर की भिन्नता।
सूत्रकृताङ्ग में एकात्मवाद की समीक्षा में कहा है- आत्मा एक है तो एक ही समय में यह तत्त्वज्ञ है, अतत्त्वज्ञ है। यह आसक्त है, यह विरक्त है-ऐसा विरुद्ध व्यवहार नहीं हो सकता अतः आत्मा एक नहीं है ।६९ एक आत्मा की कल्पना युक्तिरहित है।
जैन दर्शनानुसार एक शरीर में अनेक आत्माएं रह सकती हैं, किन्तु एक आत्मा अनेक शरीरों में नहीं रह सकती। दृष्ट या अनुभूत पदार्थ का स्मरण तथा प्रत्यभिज्ञान एक व्यक्ति जैसा दूसरे में नहीं मिलता। अनेक आत्मा की बात इससे भी सिद्ध है।७०
न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग और मीमांसा दर्शन में जैन दर्शन के समान अनेक आत्माओं की स्वीकृति है। आत्मा की विविध अवधारणा में किंचित् भिन्नता है फिर भी आत्मा के विविध रूप स्वीकार्य हैं।
तैत्तिरीयोपनिषद् में आत्मा की अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय-इन पांच अवस्थाओं का उल्लेख है।७४
कठोपनिषद् में ज्ञानात्मा, महदात्मा, शान्तात्मा तीन अवस्थाएं स्वीकृत हैं।७२ मुण्डकोपनिषद में अन्तःप्रज्ञ बहिप्रज्ञ, उभयप्रज्ञ, अवाच्य-आत्मा के चार भेद किये हैं।७३ आध्यात्मिक विकास दृष्टि से जैन दर्शन में आत्मा के तीन प्रकार बताये हैं
बहिरात्मा-प्रतिबिम्ब को बिम्ब मानना। अज्ञान दशा में जीव की अवस्था, बहिरात्मा की पहचान है।
अन्तरात्मा-जागृति। जहां आत्मा से भिन्न पदार्थों से तादात्म्य टूट जाता है।
आत्मा की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अस्तित्व का मूल्यांकन
२१.