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स्वचालित है। यंत्र का नियामक यंत्र नहीं, चेतनाशील प्राणी ही होता है। जड़ तत्त्व से चेतना का आविर्भाव संभव नही। चेतना भी जड़ का उपादान नहीं बनती। दोनों में अत्यन्ताभाव है। दोनों गुण-पर्यायों का समान रूप से निरवच्छिन्न समुदाय हैं, फिर भी संवेदन की अनुभूति चेतना में ही प्राप्य है।
जिस वस्तु का जो उपादान है वही उस रूप में परिणत होता है। मिट्टी उपादान से घर निर्मित हो सकता है, चेतना नहीं। चेतना का उपादान चेतना है।
आत्मा न हो तो निषेध किसका? असत् का निषेध संभव नहीं। संयोग, समवाय, सामान्य और विशेष-निषेध के चारों प्रकार अर्थशून्य बन जाते हैं।
ज्ञाता, ज्ञान और शेय-तीनों एक नहीं हैं। ज्ञेय पदार्थ है, ज्ञाता जानने वाला और ज्ञान जानने का साधन है। चेतना के अभाव में इन तीनों का सम्बन्ध नहीं बनता। संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय का आधार क्या होगा?
यह गूढ़ दार्शनिक तथ्य है कि सत् त्रिकालवर्ती है। जिसकी सत्ता में परिवर्तन हो, वह असत् है। सत्-असत् दोनों भिन्न हैं। भिन्न गुण-धर्मों से युक्त हैं। सत् इन्द्रियगम्य नहीं है।
सत्य आंख और कान से परे भी है। तर्क की वहां पहुंच नहीं है। तर्क का क्षेत्र केवल कार्य-कारण की नियमबद्धता से आबद्ध है। वहां दो वस्तुओं का निश्चित साहचर्य है। इसलिये उसे प्रमाण-परम्परा से ऊपर एकाधिकार नहीं दिया जाता। अतयं आगम-गम्य होता है।
शंकराचार्य ने श्वेताश्वतर उपनिषद् के प्रथम अध्याय के तीसरे मंत्र पर भाष्य लिखते हुए निरूपित किया है-'जो वस्तु प्रमाणों से गोचर नहीं होती उसे ऋषियों ने अलग प्रकार से जाना है, देखा है।'३३
आत्मा अप्रमेय है। प्रमाण चार हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम।
प्रत्यक्षः-वस्तु और इन्द्रिय-संपर्क से जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष ज्ञान में आत्मा का मन से, मन का इन्द्रिय से, इन्द्रिय का विषय से, तीनों का तादात्म्य होता है, किन्तु आत्मा के साथ इन्द्रिय का संयोग नहीं है। आत्मा अव्यक्त है। यह ऐसी अवस्था है जहां से आत्मा को पाये बिना ही वाणी, मन के साथ लौट आती है।३४
'न तत्र चक्षुर्गच्छति, न वाग् गच्छति, नो मनः३५ उपनिषद् की भाषा में आत्मा इन्द्रियों की पहुंच से परे है, अतः प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय नहीं बन सकती।
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन