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इन्द्रियों का अपना-अपना विषय निश्चित है। एक इन्द्रिय के विषय को दूसरी इन्द्रिय नहीं जान सकती। इन्द्रियां ही ज्ञाता हों, प्रवर्तक आत्मा न हो तो सब इन्द्रियों के विषय का संकलनात्मक ज्ञान कैसे संभव होगा ?
ज्ञान की स्थिरता में आत्मा सहयोगी तत्त्व है। कुछ दार्शनिकों की आत्मा और इन्द्रियों के एकत्व एवं भिन्नत्व में विप्रतिपत्ति रहती है। विमर्शणीय तथ्य यह है कि यदि इन्द्रियां ही आत्मा है तो इन्द्रियों के विकृत या विनष्ट होने पर स्मृति-नाश क्यों नहीं होता?
भिन्न-भिन्न द्वारों से भिन्न-भिन्न ज्ञानार्जन करना, स्मृति कोष में सुरक्षित रखना, एक साथ संयोजन करना इन्द्रिय से परे आत्मा को प्रमाणित करता है। इन्द्रियजन्य समग्र अनुभूतियों का केन्द्रीकरण, सुख-दुःखादि का संवेदन आत्मा के कार्य हैं।
__ इन्द्रिय-अप्रत्यक्ष मानकर आत्मा का निषेध करने से विप्रकृष्ट और व्यवहित वस्तु के अस्तित्व को भी अस्वीकार करना होगा। अध्यात्मवाद के अनुसार आत्मा इन्द्रिय और मन के प्रत्यक्ष नहीं है इसलिये वह नहीं है यह मानना तर्कबाधित है क्योंकि वह अमूर्तिक है।
श्रोत्रादि इन्द्रियां करण हैं। उनका कोई प्रेरक तत्त्व अवश्य है, क्योंकि जो करण हैं, वे किसी से प्रेरित होकर ही कार्य करते हैं।२९ इन्द्रियों को प्रेरित करने वाली शक्ति का नाम ही आत्मा है।३० इन्द्रिय और विषय में ग्राह्य-ग्राहक भाव सम्बन्ध है। ग्रहण कर्ता की अनिवार्यता है। आत्मा आदाता है।३१
- विश्व के सभी पदार्थों को जानने के लिये इन्द्रिय और मन पर ही निर्भर हो जाना नितांत अनुचित है। आत्मा शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नहीं है।३२ वह अरूपी सत्ता है।
कार्य से कारण की प्रतीति होती है। गुण से गुणी, लिङ्ग से लिङ्गी का ज्ञान होता है। आत्मा के भी अस्तित्व को प्रमाणित करने वाले कुछ व्यावहारिक लक्षण हैं, जैसे-प्रजनन (Reproduction), वृद्धि (Growth), उत्पादन (Production), व्रण-संरोहण (Healing syndrome), क्षय (Decay), अनियमित गति (Irregular motion) आदि।
खाद्य-स्वीकरण जैसी कुछ क्रियाएं यंत्र में भी परिलक्षित होती हैं किन्तु संज्ञा (Instinct), विचार (Thought), भावना (Sentiment), इच्छा (Desire) आदि चेतना के लक्षण हैं, निर्जीव यंत्र के नहीं। यंत्र पर-चालित है। आत्मा आत्मा की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अस्तित्व का मूल्यांकन