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अल्फ्रेड, आइंस्टीन आदि ने । उनका चिंतन, दर्शन और विज्ञान- दोनों के लिये उपयोगी है। रसेल का तार्किक अणुवाद ( Rational Atomism), वाइटहेड का समय-सातत्यवाद और आइंस्टीन का सापेक्षवाद (Relativity) दोनों क्षेत्रों में समान रूप से चर्चित हैं ।
दर्शन और धर्म भी अलग तत्त्व नहीं हैं । दर्शनशास्त्र के निकष पर खरा उतरनेवाला तत्त्व ही धर्म के क्षेत्र में प्रतिष्ठित होता है। एक ही चेतना प्रवाह के ये दो रूप हैं। मूल एक है। टहनियां दो हैं । धर्म दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है। दर्शन धर्म का सैद्धान्तिक पक्ष है।
विज्ञान जैविक प्रक्रियाओं की व्याख्या करता है । जीवन किन-किन तत्त्वों का समीकरण है ? वे तत्त्व किस प्रकार परस्पर क्रियाएं - प्रतिक्रियाएं करते हैं तथा क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं करके जीवंत कोष या कोष-समूह को जन्म देते हैं ? यह समाधान देता है - विज्ञान | धर्म-दर्शन आत्मा का शोधन है। जैन दर्शन परम आस्तिक दर्शन है। निश्रेयस् उसका लक्ष्य है। इसका प्रमाण है- अस्तिवाद के चार अंगों की स्वीकृति - आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद, क्रियावाद |
महावीर का अस्तित्ववाद मानव तक ही सीमित नहीं, सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व को भी उतनी ही मान्यता दी है। इसके मानक तत्त्व हैंसंवेदन और जिजीविषा । प्राणी मात्र में जिजीविषा, सुख-दुःख का संवेदन और अपनी सुरक्षा की वृत्ति देखी जाती है । अतः उनके अस्तित्व में संदेह का अवकाश नहीं है ।
वर्तमान में अस्तित्व का सूत्र एक वाद का रूप ले चुका है। इसे मानवीय समस्याओं का दर्शन माना है। जीवन, सुख-दुःख, आशा-निराशा आदि अस्तित्व की समस्याएं हैं। पाश्चात्य दर्शन भी अस्तित्ववाद से प्रभावित है। सारेन कीकेगार्ड इसके जन्मदाता माने जाते हैं ।
अस्तित्व का अर्थ है - सत्ता की स्वीकृति | आत्मा के अस्तित्व और नास्तित्व का अभ्युपगम सनातन है। अस्तित्व की अस्वीकृति में अधिक प्रसिद्धि लोकायत मत को मिली। श्रमण परम्परा में अजित केशकंबली भी इसके पक्षधर थे। इन भूतवादियों के अतिरिक्त सभी दर्शनों ने एक मत से अस्तित्व को स्वीकारा है।
कुछ पाश्चात्य एवं आधुनिक भारतीय विचारकों के अभिमत से महावीर तथा बुद्ध के समकालीन चिन्तकों में आत्मवाद सम्बन्धी कोई निश्चित दर्शन जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन