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आत्मा की दार्शनिक पृष्ठभूमि :
अस्तित्व का मूल्यांकन
___ संसार का प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मों का अखंड मौलिक पिण्ड है। उसका अनन्तवां भाग ही शब्द के द्वारा प्रज्ञापनीय है। अनभिधेय पदार्थ अनन्त हैं। वस्तु के अनन्त धर्म हैं। प्रतिपादन के साधन शब्द अनन्त हैं। दृष्टिकोण भी अनन्त हैं। पदार्थ सत्-असत्, नित्यानित्य, एक-अनेक, वाच्य-अवाच्य आदि अनेक विरोधी धर्मों का क्रीड़ास्थल है। अनन्तधर्मा वस्तु-स्वरूप को केन्द्र में रखकर दर्शन शब्द का व्यवहार हो तो सार्थक हो सकता है।
प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी ने न्याय कुमुदचन्द्र द्वि. भाग के प्राक्कथन में दर्शन शब्द का अर्थ 'सबल प्रतीति' किया है। इससे फलित है-जिसकी, जिस तत्त्व पर अटूट श्रद्धा हो, वही उसका दर्शन है। यह अर्थ हृदयग्राही है, क्योंकि हर दार्शनिक को अपने-अपने दृष्टिकोण पर विश्वास निश्चित है। जब दर्शन विश्वास की भूमिका पर प्रतिष्ठित हुआ तो विचार-भेद स्वाभाविक हो गया। अनेक दर्शनों की सृष्टि हुई। सभी दर्शनों ने विश्वास की उर्वरा भूमि पर पनप कर जिज्ञासुओं को सत्य-साक्षात्कार या तत्त्व-निर्णय का भरोसा तो दिया किन्तु अन्ततः उनके हाथ तर्क-जाल के फलस्वरूप संदेह ही पड़ा।
दर्शन एक दिव्य ज्योति है। दार्शनिकों के हाथ में थमा दी जिससे चाहें तो अंधकार हटाकर प्रकाश फैला सकते हैं, चाहें तो मतवाद के आधार पर हिंसा एवं विनाश का दृश्य उपस्थित कर सकते हैं। दर्शन का इतिहास दोनों प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है। जैन दर्शन ने ज्योतिर्मय अध्याय जोड़ने का ही प्रयास किया है।
भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका आधार हैअनेकांतमयी उदार दृष्टि। पक्ष-विपक्ष में सामंजस्य स्थापित करना इसकी मौलिक देन है।
भारतीय दर्शन का मुख्य लक्ष्य तत्त्व-दर्शन या मोक्ष-दर्शन है। इसलिये विश्व की व्याख्या या मोक्ष के साधक-बाधक बिन्दुओं पर चर्चा को प्रमुखता दी है।
आत्मा की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अस्तित्व का मूल्यांकन