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आस्रव कहा है। मनोविज्ञान की भाषा में उसे अदस् मन कहा जाता है। अदस् मन और अविरति समकक्ष हैं। प्रमाद आस्रव (Inadvertance)
प्रमाद का अर्थ है- विस्मृति, मूर्छा, अनुत्साह। जागरूकता अप्रमाद है। जो अध्यात्म की जीवंत अनुमोदना है। प्रमाद, आत्म-विस्मृति है।" प्रमाद कर्म रूप है। ऐन्द्रयिक लोलुपता, तन्द्रा, मूर्छा, आवेग आदि प्रमाद के ही लक्षण हैं। जब तक मिथ्या दृष्टिकोण है, आकांक्षाएं बनी रहती हैं। आकांक्षाओं के परिवेश में स्व-विस्मृति अस्वाभाविक नहीं है। कषाय आस्रव (Passions)
राग-द्वेषात्मक उत्ताप को कषाय कहते हैं। राग-द्वेष के कारण क्रोध (Anger), मान (Vanity), माया (Descitfulness), लोभ (Avarice)-ये चार मूल आवेग हैं। हास्य, रति, अरति, भय, शोक, घृणा, काम आदि उप-आवेग हैं। इन आवेगों की पृष्ठभमि में राग-द्वेषात्मक संवेदन काम करते हैं। योग आस्रव (Activities of mind, speech and body)
मन, वचन और काया की क्रियाशीलता को योग कहते हैं। मन, इन्द्रियों का नियन्ता है। वचन अन्तस्थ भावों की अभिव्यंजना का माध्यम है। शरीर क्रियाशक्ति का केन्द्र है। इस सम्बन्ध में महावीर-गौतम का संवाद मननीय है।
भंते ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंधन करता है? हां, गौतम! भंते ! वह किन कारणों से कर्म बांधता है ? गौतम ! उसके दो हेतु हैं- प्रमाद और योग। भंते ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है ? योग से। भंते ! योग किससे उत्पन्न होता है? वीर्य, पराक्रम, प्रवृत्ति से। भंते ! वीर्य किससे उत्पन्न होता है ? शरीर से। भंते ! शरीर किससे उत्पन्न होता है ? जीव से ।१६
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन